________________ 128 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी समवायांग का ज्ञाता है तो वह भी आचार्य पद के योग्य है अथवा उसे उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी और गणावच्छेदक बनाया जा सकता है।' परन्तु उपर्युक्त नियमों में अपवाद भी देखा जाता है। निरुद्ध पर्याय वाले अर्थात् किसी विशेष कारणवश संयम से भ्रष्ट हुए और पुनः संयमधारण करने वाले एक ही दिन की दीक्षापर्याय वाले साधु को भी आचार्य अथवा उपाध्याय पद पर प्रतिष्ठित किया जा सकता है कारण कि उसने गणरूप में रहने वाले कुलों को हितसम्पादन से उपकृत, विनय आदि से प्रीतियुक्त, सरलता से विश्वस्त, वैयावृत्य आदि से स्थिर, इष्ट प्रयोजनार्थ सम्मत, दान आदि के लिए प्रमुदित, गणहितके सम्पादन से अनुमत और बाल-वृद्ध-ग्लान के लिए अत्यधिक इष्ट होने से बहुमत किया है। निरुद्ध वर्ष पर्याय वाला श्रमण यदि आचार प्रकल्प (निशीथ सूत्र) का एक देश (एक विभाग) पढ़ चुका हो और शेष आचार प्रकल्प को पढ़ने का संकल्प रखता हो तो उसे भी आचार्य या उपाध्याय पद दिया जा सकता हैं। आचार्य आदि के चयन अथवा प्रदान करने के लिए स्थविरों कीसम्मति लेना अनिवार्य है क्योंकि वे दीर्धदर्शी होते हैं एवं उनका ज्ञान तथा उनके अनुभव परिपक्व ही नहीं होते बल्कि सर्वाधिक महत्त्व रखते है। यदि स्थविर अमुक के लिए अमुक पद की अनुज्ञा प्रदान करते हैं, तो. उस साधु के लिए गणधारण करना उचितं होता है। यदि इसमें स्थविरों की अनुज्ञा-नहीं मिलती है, तब उसे गण धारण नही करना चहिए। यदि कोई उसकी अनुज्ञा प्राप्त किए बिना ही गणधारण करना है तब वह उतने ही दिन की दीक्षा का छेद या परिहारतपरूप प्रायश्चित का पात्र होता है। यहाँ यह भी बतलाया गया है कि तीस वर्ष की श्रमण-पर्याय वाली निर्ग्रन्थी के लिए तीन वर्ष की श्रमण-पर्याय वाले निर्ग्रन्थ को उपाध्याय पद पर तथा साठ वर्ष की दीक्षा-पर्याय वाली निर्ग्रन्थी के लिए पाँच वर्ष की 1. वही, 3.7 2. दे० व्यवहार सूत्र, 3.6 3. निरुद्धवासपरियाए समणे णिग्गंथे कप्पह आयरिय उवज्झायत्तए उद्दिसित्तए समुच्छेयकप्पंसि। तस्स णं आयार-पकप्पस देसे अवट्ठिए, से य 'अहिज्जिस्सामि त्ति अहिज्जेज्जा, एवं से कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए।। वही, 3.10 4. दे० वही, 3.2 5. तिवासपरियाए समणे निग्गंथे तीसं वासपरियाए समणीए निग्गंथीए कप्पइ उवज्झाएत्ताए उद्दिसित्तए।। व्यवहार सूत्र 7.16