________________ आचार्य- परमेष्ठी 127 प्रतिकार करना है वह प्रतिक्रमण कहलाता है, तथा जो आगे भविष्यत् और वर्तमान में उत्पन्न होने वाले द्रव्यादिविषयक दोषों का परिहार किया जाना है, वह प्रत्याख्यान कहलाता है। इसके अतिरिक्त प्रत्याख्यान में निर्दोष द्रव्य आदि का भी त्याग किया जाता है, यही दोनों में विशेष अन्तर है।' ६.कायोत्सर्गः दैवसिक और रात्रिक आदि नियमों में आगमविहित काल प्रमाण से जिनेन्द्र के गुणों के चिन्त्वन से सहित होते हुए शरीर के प्रति जो ममत्व का त्याग किया जाता है उसे कायोत्सर्ग या व्युत्सर्ग कहते हैं। आचार्य उपर्युक्त षडावश्यक का स्वयं भी पालन करते हैं एवं अन्य साधुओं से भी पालन कराते हैं। (घ) आचार्य-पद-प्रतिष्ठा : आचार्य-धर्म-संघ का केन्द्र बिन्दु होता हैं / संघ की सम्पूर्ण व्यवस्था आचार्य द्वारा ही की जाती है। संघ का समुचित विकास आचार्य पर ही निर्भर करता है। अतः इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण पद के लिए किसी योग्य व्यक्ति का होना नितान्त आवश्यक है। जैन परम्परा में आचार्य पद की प्राप्ति के लिए एक निश्चित मानदण्ड का निर्धारण किया गया है। जिसको श्रमण दीक्षा लिए पाँच वर्ष हो गए हैं, जो शुद्ध आचरण में तत्पर है,प्रवचन में प्रवीण है, नवदीक्षित हित सम्पादन (संग्रह)और आज्ञाधीन अणगारों पर उपकार करने (अपग्रह) में कुशल है। जो परिपूर्ण (अक्षत), अखण्डित (अभिन्न)तथाशबल दोषों से रहित (अशबल)चारित्रवाला है और जोअसंक्लिष्ट चित्तवाला, बहुश्रुत एवं बहुआगमज्ञहै, कमसेकमजोदशश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहारकल्प का ज्ञाता है, वह आचार्य पद पर प्रतिष्ठित होने के योग्य आगे यहाँ ही बतलाया गया है कि जो आठ वर्ष की दीक्षा वाला श्रमण है, वह यदि उपर्युक्त गुणों के साथ-साथ कल्प के स्थान पर स्थानांग एवं 1. वही,वृ० 1.27 2. वही, 1.28. 3 शबल दोष इक्कीस है। दे०-समवाओ, 21.1 4. पंचवास परियाए समणे णिग्गंथे आयारकुसले, संजमकुसले, पवयणकुसले, पण्णत्तिकुसले, संग्गहकुसले, उवग्गहकुसले, अक्खयायारे, अभिन्नायारे.असबलायारे. असंकिलिट्ठायारचित्तें, बहुस्सुए, बभागमें जहण्णेणं दस-कप्प-ववहारधरे कप्पइ आयरिय-उवज्झायत्ताए उद्दिसित्तए। व्यवहारसूत्र, 3.5