________________ 125 आचार्य - परमेष्ठी वही साधु व्रतारोपण के योग्य माना गया है / ' 15. ज्येष्ठ सद्गुण : जिनमें उत्कृष्ट सद्गुणों का निवास हो उन्हें ज्येष्ठ-सद्गुण कहते हैं | जो जाति और कुल की अपेक्षा महान् हों, जो वैभव, प्रताप और कीर्ति की अपेक्षा गृहस्थों में भी महान् रहे हों, जो ज्ञान और चर्या में उपाध्याय आदिसे भी महान् हैं, वे ज्येष्ठता गुण से युक्त होते हैं | १६-प्रतिक्रमी :जो विधि पूर्वक दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण करते-कराते हों, वे प्रतिक्रमी कहलाते हैं। 17- षण्मासयोगी :जो बसन्त आदि छह ऋतुओं में एक-एक मास तक एक स्थान पर योग साधना धारण करते हैं, अन्य समय विहार करते हैं , वे षण्मासयोगी कहलाते हैं / इसका दूसरा नाम मासिकवासिता भी है / १८-तद्विनिषद्यक : तद्विनिषद्यक का अभिप्राय है- वर्षा ऋतु के चार मास में एक स्थान पर चतुर्मास योगधारण करना / इसका दूसरा नाम 'पज्जोसवणा' (पर्युषणाकल्प) भी है / इसका कारण है कि उस समय पृथ्वी स्थावर एवं जंगम जीवों से भरी होती है, जिससे भ्रमण करने में साधुओं को महान् असंयम होता है और कीचड़ आदि के कारण चलने में भी कठिनाई होती है / इसलिए जैनधर्म के सभीसम्प्रदायों में साधु-मुनियों को वर्षा ऋतु मेंचौमासा करने का विधान किया गया है / दूसरे साधुसन्तों के एक स्थान पर रहने से उतने दिनों तक श्रावक गण उनके पास बैठकर धर्म लाभ करते हैं, यही चौमासे का उद्देश्य है / इस तरह उपर्युक्त दश स्थितिकल्प हैं / (इ) 16-30 बारह प्रकार का तप : आचार्य अनशन आदि बारह प्रकार का तप करते हैं / इन तपों का विशेष अध्ययन आगे किया जाएगा / (उ) 31-36 षडावश्यक : जो रागद्वेषादि के वश में नहीं होता उसका नाम 'अवश' और उसके अनुष्ठान का नाम आवश्यक है / वे आवश्यक छह हैं - सामाथिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग / 1. आचेलक्के य ठिदो उद्देसादीय परिहरदि दोसे / गुरुमत्तिमं विणीदो होदि वदाणं स अरिहो दु / / धर्मा, गा० टी०, 6.80-81, पृ०६८७ 2. मासैकवासिता स्थितिकल्पो योगश्च वार्षिको दशमः / वही, 6.81 3. विस्तार के लिए दे०-धर्मा०, गा० टी०, 6.80-81 4. मूला० 1.22