________________ 124 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी जो ग्रहण नहीं करता, वह अनुद्दिष्टभोजी है / ११-अशय्याशनी : शय्या से अभिप्राय है -- वसति अर्थात् भवन आदि / उनको बनाने वाला, उनका संस्कार करने वाला तथा वहाँ पर व्यवस्था आदि करने वाला शय्याधर कहलाता है / जो ऐसे शय्याधर के अशन-भोजन-पान को ग्रहण नहीं करता, वह अशय्याशनी कहलाता है | शय्याधर का भोजनादिग्रहण करने पर वहधर्मफल के लोभ से छिपाकर भी आहार आदि की व्यवस्था कर सकता है, साथ ही इससे मुनि का उस पर विशेष स्नेह भी हो सकता है कि यह हमें वसति के साथ-साथ भोजन भी देता है किन्तु उसका भोजन ग्रहण न करने पर उक्त दोष नहीं आते / ' 12- अराजभुक् :जो राजाओं के घर में भोजन ग्रहण नहीं करता अथवा जो राजपिण्ड का त्यागी है, वह अराजभुक् है / राजपिण्ड के ग्रहण करने में अनेक दोष आते हैं / जैसे -- . (1) राजभवन में मन्त्री, श्रेष्ठी, कार्यवाहक आदि बराबर आते-जाते रहते हैं / अतः भिक्षा के लिए राजभवन में प्रविष्ट साधु को उनके आने-जाने से रुकावट हो सकती है / (2) हाथी-घोड़ों के आने जाने से वह भूमिशोधकर नहीं चल सकता। (३)नंगे साधु को देखकर और उसे अमंगल मानकर कोई बुरा व्यवहार कर सकता है / (4) राजकुल में चोरीआदि हो जाने पर साधु को भी दोषी ठहराया जा सकता है / (5) राजा से प्राप्त सुस्वादु भोजन के लोभ से अनेषणीय भोजन भी ग्रहण किया जा सकता है / इस कारण आचार्य अराजभुक् होते हैं। 13- क्रियायुक्त : जो कृतिकर्म से युक्त हो उसे क्रियायुक्त कहते हैं / षडावश्यक का पालन करना अथवा गुरुजनों का विनय करना कृतिकर्म कहलाता है / १४-व्रतवान् जो व्रतधारण करने की योग्यता रखताहो उसे व्रतवान् कहते हैं | जो नग्न मुद्रा को धारण करने वाला हो, औदेशिक आदि दोषों को दूर करने वाला हो, गुरुभक्त हो तथा अत्यन्त विनम्र हो 1. भग० आO, गा० टी०, 432, पृ० 327-28 2. दे० - धर्मा०, गा० टी०, 6.80-81, पृ०६८६-८० 3. कृतिकर्म- षडावश्यकानुष्ठानं गुरुणां विनयकरणं वा / वही, पृ० 687