________________ आचार्य- परमेष्ठी 123 (6) दोषाभाषक आचार्य :दोष छिपाने वाले शिष्य के दोष उगलवाने की सामर्थ्य रखने वाला आचार्य दोषाभाषक कहलाता है / जिस प्रकार चतुर चिकित्सक व्रण (घाव) के भीतर छिपे हुए विकार को पीड़ित कर बाहर निकाल देता है उसी प्रकार आचार्य भी शिष्य के छिपे हुए दोष को अपनी कुशलता के प्रकट करा लेता है / इसी कारण इसे उत्पीड़क आचार्य भी कहा जाता है / ' (7) अस्रावक आचार्य : जो आचार्य किसी के गोपनीय दोष को कभी प्रकट नहीं करता वह अस्रावक है | जिस प्रकार संतप्त तवे पर पड़ीजल की बूंद वहीं शुष्क हो जाती है उसी प्रकार शिष्य द्वारा कहे हुए दोष जिसमें शुष्क हो जाते हैं अर्थात् जो किसी दूसरे को नहीं बतलाते हैं, वे अस्रावक आचार्य हैं / 2 (8) सन्तोषकारी आचार्य : जो साधुओं को सन्तोष उत्पन्न करने वालेहोते हैं,क्षुधा-तृषाआदिकीवेदनाके समयसाधुओं को हितकारी उपदेश देकर सन्तुष्ट करते है और प्रतिपल जो सुख व आनन्द देने वाले हैं, वे सन्तोषकारीआचार्य हैं / इन्हें हीसुखावह भी कहा जाता ये आचार्य के आचरण विषयक आठ गुण होते हैं / ' (आ) आचार्य के स्थितिकल्परूप दस गुण : स्थितिकल्पों का आचार्य के आचार गुण से सम्बन्ध नहीं है / शास्त्रोक्त साधुसमाचार को कल्प कहते हैं और उसमें स्थिति को कल्पस्थिति कहते हैं / ये स्थिति कल्प गुण सर्व साधारण होते हैं / दस स्थितिकल्प निम्न प्रकार (6) दिगम्बर : जो आचेलक्य अथवा नग्न मुद्रा को धारण करने वाले होते हैं वे दिगम्बर हैं / इससे उनकाअपरिग्रहत्व और निर्विकारता सिद्ध होती है / १०-अनुद्दिष्टभोजी : साधुओं के उद्देश्य से बनाए गए भोजन-पान को 1. वही, गा०४८०-८२ 2. वही, गा०४८८ 3 दे०.- धर्मा० 6.77 4. विस्तार के लिए दे०- वही, गा० टी०.६.७८.७६ 5. दे० - वही, हिन्दी टीका, पृ०६८४ 6. विस्तार के लिए दे०-भग० आo, गा० टी०,४२३. पृ० 321-27 7. वही, पृ० 327