________________ 122 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (अ) आचार विषयक आठ गुण : उक्त छत्तीस गुणों में से प्रारम्भिक आठ गुण आचार्य के धर्माचरण से सम्बन्धित हैं यथा (1) आचारवान् आचार्य : दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का आचार्य स्वयं पालन करते हैं तथा संघ के दूसरे साधु एवं साध्वियों को भी उनके पालन के लिए प्रेरित करते हैं / (2) श्रुताधारी आचार्य : जिसकी श्रुतज्ञानरूपी सम्पत्ति की कोई तुलना न कर सके उसे श्रुताधारी अथवा श्रुतज्ञानी कहते हैं आचार्य चौदह पूर्व तक के श्रुतज्ञान को धारण करने वाले होते हैं / (3) प्रायश्चित्तदाता आचार्य : प्रायश्चित्त विषयक ज्ञान का रक प्रायश्चित्तदाता कहलाता है / इस तरह जिसने अनेक बार प्रायश्चित्त को देते हुए देखा हो और जिसने स्वयं भी उसका अनेक बार प्रयोग किया हो, स्वयं प्रायश्चित्त ग्रहण किया हो अथवा दूसरे को दिलवाया हो, वह प्रायश्चित्त आचार्य है इन्हें व्यवहारपटु भी कहा गया है / (4) आसनादिद आचार्य : समाधिमरण में प्रवृत्त हुए तपस्वी साधुओं को जो आसन आदिदेकर उनकी परिचर्या करता है, वह, आसनादिद आचार्य कहलाता है / उसे परिचारी अथवा प्रकारी आचार्य भी कहा जाता है / (5) आयापायकथी आचार्य :आलोचना करने के लिए उद्यतक्षपक साधुके गुणऔर दोषों को प्रकाशित करनेवाला सन्तआयापायकथी आचार्य होता है / अभिप्राय यह है कि जो साधु किसी प्रकार का अतिचार न लगाकर सरल परिणामों से अपने दोषों की आलोचना करता है, ऐसे उसके गुण की जो प्रशंसा करता है और आलोचना में दोष लगाने वाले के जो दोष बतलाता है, वहआय (=लाभ)और अपाय (= हानि) को बतलाने वाला आयापायकथी आचार्य होता 1. व्यवहारपटुस्तद्वान् परिचारी प्रकारकः / धर्मा० 6.78 2. वही, 3. (1) आकम्पित, (2) अनुमापित, (3) यदृष्ट, (4) बादर, (5) सूक्ष्म, (6) छन्न, (7) शब्दाकुल, (8) बहुजन, (6) अव्यक्त और (10) तत्सेवित / ये आलोचना के दस दोष हैं / - दंसणपाहुड़, गा० टी०६ 4. दे० - भग० आo, गा० 461-63