________________ आचार्य- परमेष्ठी 119 जन्तुरहित, दूसरों की दृष्टि के अगोचर, विस्तृत (बलि आदि से रहित)और जहाँ किसी को विरोधन हो, ऐसी विशुद्ध भूति में मल-मूत्र आदि का त्याग करना प्रतिष्ठापना समिति कहलाती है / ' गुप्तित्रय : मन, वचन और काय सम्बन्धी सभी अशुभात्मक प्रवृत्तियों को रोकना गुप्ति है / तत्त्वार्थसूत्र में इसे योगों का भली-भांति निग्रह करना बतलाया है / कायिक, वाचिक और मानसिक क्रिया अर्थात् योग का सभी प्रकार से निग्रह करना मात्र गुप्ति नहीं है, बल्कि उनका प्रशस्त निग्रह करना ही गुप्ति है / प्रशस्तनिग्रह का अर्थ है-- सोच समझकर तथा श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना इसका स्पष्ट अभिप्राय यह है कि बुद्धि और श्रद्धापूर्वक मन, वचन और काय को उन्मार्ग से रोकना और सन्मार्ग में लगाना ही प्रशस्त निग्रह है / योग के संक्षेप में उपर्युक्त तीन ही भेद हैं | अतः निग्रहरूपगुप्ति के भी तीन ही भेद किए गए हैं -- मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति' / (1) मनोगुप्ति: संरम्भ, समारम्भ एवं आरम्भ में प्रवृत्त हुए मन के व्यापार को रोकना मनोगुप्ति है / 'प्राणों के घात आदि में प्रमादयुक्त व्यक्ति जो प्रयत्न करता है वह सरंम्भ है | साध्य हिंसा आदि क्रिया के साधनों को एकत्र करना समारम्भ है / हिंसा आदि के उपकरणों का संचय हो जाने पर हिंसा का आरम्भ करना आरम्भ है / 6 अहिंसा के निर्दुष्ट पालन करने के लिए मन के इन तीनों व्यापारों को रोकना अत्यन्त आवश्यक है / मन के विचारों की प्रवृत्ति सत्य, मृषा, मिश्र (सत्यमृषा) और अनुभय (असत्यमृषा) इनचार विषयों में सम्भव होने से मनोगुप्ति के चार प्रकार बतलाए गए हैं -- 1. पासुगभूमिपदेसे गूढे रहिए परोपरोहेण। उच्चारादिच्चागो पइट्ठासमिदी हवे तस्स / / वही, गा० 65 तथा दे०- वही, वृ० 1.15 2. गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु. सव्वसो / उ० 24.26 3. सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः / त० सू० 6.4 4. मणगुत्तो वयगुत्तो कायगुत्तो जिइन्दिओ / / उ० 12.3 5 संरम्भ- समारम्भे आरम्भे य तहेव य / मणं पवत्तमाणं तु नियतेज्ज जयं जई / / उ० 24.21 प्राणव्यपरोपणादौ प्रमादवतः संरम्भः / साध्यायाः हिंसादिक्रियायाः साधनानां समाहारः समारम्भः / संचितहिंसाधुपकरणस्य आद्यः प्रक्रम आरम्भः / भग० आ०, गा० टी०,८०५ 7. सच्च तहेव मोसा य सच्चामोसा तहेव य / नउत्थी असच्चमोसा मणुगुत्ती चउव्विहा / / उ० 24.20