________________ 118 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी हो, वह प्रासुक माना जाता है / इस प्रासुक मार्ग से भी दिन में पर्याप्त प्रकाश के हो जाने पर ही गमन करना अभिप्रेत है / ' (2) भाषा समितिःइसका सामान्य अर्थ है-सावधानीपूर्वक बोलना। पिशुनता, हास्य, कठोरता, परनिन्दा, आत्मप्रशंसा और निकृष्ट स्त्रीकथाजादिरूप-वचन को छोड़कर ऐसा निर्दोष वचनबोलना, जो अपने लिए व अन्य जनों के लिए भी हितकर हो ।इससे सत्य महाव्रत के पालन में सहायता मिलती है / (3) एषणा समितिःछयालीसदोषों से रहित, बुभुक्षाआदि कारणों सहित मन-वचन-काय व कृत-कारित अनुमोदनरूप नौ कोटियों से विशुद्ध तथाशीत उष्ण आदि रूपहोने पर राग-द्वेष रहित होकर जो भोजन आदि को ग्रहण किया जाता है, उसे एषणा समिति कहा गया है / (4) आदाननिक्षेपण समिति : ज्ञान के उपकरणभूत पुस्तक आदि, संयम के उपकरण रूप पीछी आदि और शौच के उपकरणभूत कमण्डलु तथा संस्तर आदि को भी प्रयत्न-पूर्वक ग्रहण करना व रखना, आदाननिक्षेपणसमिति कहलाती है / (5) उत्सर्ग समिति : उत्सर्ग समिति का अपरनाम प्रतिष्ठापना समिति भी है / जनसमुदाय के आवागमन से रहित एकान्तरूप, 1. पासुगमग्गेण दिवा अवलोगो जुगप्पमाण हि / गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स || - नियम०, गा०६१ तथा दे०, मूला० वृ० 1.11 2. पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं / परिचता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ।।-नियम० गा०६२ तथा दे० - मूला० वृ० 1.12 भोजन के छयालीस दोष इस प्रकार हैं ---सोलह उद्गम दोष - अधःकर्म महादोष है / औद्देशिक, अध्यधि, पूति, मिश्र, स्थापित, बलि, प्रावर्तित, प्रादुष्कार, क्रीत, प्रामृष्य, परिवर्तक, अभिघट, उद्भिन्न, मालारोह, अच्छेद्य और अनिसृष्ट ये सोलह उद्गम दोष हैं | सोलह उत्पादन दोष-धात्री, दूत, निमित्त, आजीव, वनीपक, चिकित्सा, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, पूर्व स्तुति, पश्चात् स्तुति, विद्या, मन्त्र, चूर्णयोग और मूलकर्म / दश अशन दोष-- शंकित, म्रक्षित, निक्षिप्त, पिहित, संव्यवहरण, दायक, उन्मिश्र, अपरिणत, लिप्त और व्यक्त। उपर्युक्त आहार के 42 दोषों में संयोजन, प्रमाण, अंगार और धूम दोष को मिलाकर 46 दोष हो जाते हैं / तथा अधःकर्म नामक महादोष को अलग से गिन कर 47 दोष हो जाते हैं | -विस्तार के लिए दे० मूलाचार, पिण्डशुद्धि-अधिकार 4. कदकारिदाणुमोदणरहिदं तहपासुगं पसत्थं च / / दिण्णं परेणभतं समभुत्ती एसणासमिदी / / नियम०, गा० 63 तथा दे० मूला० 10 1.13 5. पोत्थइकमंडलाइंगहणविसग्गेसु पयतपरिणामो। आदावणणिक्खेवणसमिदी होदित्ति णिहिट्ठा / / नियम०, गा० ६४.तथा दे०-मूला० 101. 14 3.