________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाएं : ___ महिलाआलोकनविरति, पूर्वरतिस्मरण विरति, संसक्तवसति-विरति, विकथाविरति और पुष्टिरससेवनविरति ये पांच ब्रह्मचर्य महाव्रत की भावनाएं हैं / इन पाँचों भावनाओं का ब्रह्मचर्य की नौ गुप्तियों में ही अन्तर्भाव हो जाता पाँचवा महाव्रत-अपरिग्रह : मूर्छा अर्थात् (दृढ़) आसक्ति ही परिग्रह है धन-धान्य, दास-दासी आदि जितने भी निर्जीव एवं सजीवद्रव्य हैं, उन सब में कृत-कारित-अनुमोदना तथा मन-वचन-काय से मोहरहित होकर त्याग करना, उनमें दृढ़ आसक्ति का न होना अपरिग्रह महाव्रत है। अतः सर्वविरत साधु के लिए यह आवश्यक है कि वह भूख प्यास आदि शान्त करने के लिए भी खाद्य पदार्थों का संग्रह न करें | जो वस्त्र, पात्र एवं मयूरपिच्छिकाआदि उपकरण संयम का पालन करने के लिए अपने पास रखे हैं, उनके प्रति भी ममत्व (मोह) नहीं होना चाहिए। अपरिग्रह महाव्रत की पांच भावनाएं : रागोत्पादक मनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध पर राग न करना तथा द्वेषोत्पादक अमनोज्ञ शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गन्ध पर द्वेष न करना, ये ही अपरिग्रह महाव्रत की पाँच भावनाएं हैं। इन पांच भावनाओं से तात्पर्य यही है कि मनोज्ञामनोज्ञ विषयों में समानभाव, समताभावधारण करना चाहिए। इस तरह अपरिग्रह से अभिप्राय है-- पूर्ण वीतरागता / उपर्युक्त पाँच महाव्रतों के वर्णन को ध्यान से देखने पर यह ज्ञात होता है कि इन सभी के मूल में अहिंसा की भावना है | अतः जैनधर्म में अहिंसा के पालन पर विशेष बल दिया गया है और उसे महाव्रतों में प्रथम स्थान दिया गया (उ) पंचविध आचारपालन समर्थ आचार्य : _ आचार्य ज्ञानादि पांच प्रकार के आचार का प्रत्येक स्थिति में पालन ' करने में समर्थ होते हैं / चाहे कैसी भी विकट परिस्थिति उत्पन्न क्यों न हो जाए, वे आचार-मर्यादाओं का सर्वात्मना पालन करते हैं क्योंकि आचार का 1. महिलालोयणपुव्वरइ सरणसंसत्तवसहि विकहाहि / पुट्ठिय रसेहिं विरओ भावण पंचावि तुरियम्भि / / चारित्त पाहुड़, गा० 34 2. मूर्छा परिग्रहः / त० सू० 7.12 3. धण-धन्न - पेसवग्गेसु परिग्गहविवज्जणं / सव्वारम्भपरिच्चाओ निम्मभत्तं सुदुक्करं / / उ० 16.30 4. अपरिग्गह समणुण्णेसु सदपरिसरसरूपगंधेसु / रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होति / / चारित्तपाहुड, गा०३५