________________ 110 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (1) क्रोध कषाय : __ क्रोध प्रथम कषाय है, जो मनुष्य के स्वभाव को क्रूर बना देता है / क्रोधावेश में आकर व्यक्ति अपने प्रियजनों की हत्या करने से भी नहीं चूकता और कई बार आत्म हत्या भी कर बैठता है / गीता में बतलाया है कि क्रोध से अविवेक उत्पन्न होता है, अविवेक से स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है / स्मृति के भ्रमित हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है, और बुद्धि के नष्ट होने से व्यक्ति का सब कुछ ही नष्ट हो जाता है / इस कारण आचार्य सदैव क्रोधरहित रहते हैं और यदि कभी कारणवश क्रोध आ भी जाए तो क्षमाभाव धारण कर लेते हैं ऐसे हैं 'जैन श्रमण आचार्य' ! (2) मान कषाय : ___मान का अर्थ है- अभिमान, जो व्यक्ति के स्वभाव को कठोर बना देता है / जिस व्यक्ति में मान कीभावना आ जाती है उसका विनय गुण सदा-सदा के लिए जाता रहता है 2 अर्थात् विनय गुण नष्ट हो जाता है | विनयशीलता के बिना ज्ञानार्जन नहीं हो सकता / ज्ञान के अभाव में तत्त्वचिन्तन भी नहीं किया जा सकता और तात्त्विक ज्ञान के अभाव में धर्माचरण भी नहीं हो सकता तथा उसके फलस्वरूप मोक्ष प्राप्ति भी नहीं हो सकती / मान कषाय की प्रबलता देखिए कि शरीर से स्नेह छोड़ देने पर भी बाहुबली मान कषाय से बहुत समय तक कलुषित रहे ' / ' ___ मान की उत्पत्ति के स्रोत आठ मद हैं / वे हैं -- 1- जातिमद, २-कुलमद,३-बलमद,४-रूपमद,५-लाभमद,६-तपोमद,७-श्रुतमद और ८-ऐश्वर्यमद / किन्तु तत्त्वज्ञआचार्य इनमें से कोई निमित्त मिल जाने पर अहंकार न करके सदैव विनम्र रहते हैं / (3) माया कषाय: कपट, कुटिलता, वक्रता, छल, वंचना आदि ये सब माया के ही रूप हैं। मायाभोले मनुष्य के स्वभाव में कुटिलता उत्पन्न कर देती है ।माया शल्य रूप होती है / जिस प्रकार शरीर में चुभा हुआ कांटा निरन्तर पीड़ित करता रहता 1. क्रोधादभवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः / स्मृतिभ्रंशाबुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति / / गीता, 2.63 2. माणो विणयनासणो / / दश० 8.37 3. देहादिक्तसगो माणकसाएण कलुसिओ धीर / अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तिय कालं / / भावपाहुड़, गा०४४ 4. समवाओ, 8.1 तथा मिलाइए-रत्नकरण्डश्रावकाचार, 1.25 5. पडिक्कमामि तिहिं सल्लेहिं - मायासल्लेणं निआणसल्लेणं मिच्छादसणसल्लेणं / आवस्सयं, 4.8 ॐ