________________ आचार्य - परमेष्ठी 113 चला जाए कि त्रस-स्थावर किसी भी प्रकार के जीवों को कष्ट न हो, उनकी हिंसा न हो-यही ईर्यासमिति है / (4) आदाननिक्षेपण समितिः वस्त्र, पात्र,आहार, पानीआदि किसी भी वस्तु भूमि को देखकर और शोधकर रखना या उठाना - यही आदाननिक्षेपणसमिति है (5) आलोकित पान-भोजन भावना :इस भावना से अभिप्राय है कि खाने-पीने सम्बन्धी सभी वस्तुओं को भली-भाँति देखकर ग्रहण करना / द्वितीय महाव्रत-सत्य : क्रोध, लोभ, हास्य एवं भय आदि झूठ बोलने के कारणों के विद्यमान रहने पर भी मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदना से कभी झूठ न बोलना, सदैव सावधानीपूर्वक हितकारी एवं प्रिय वचनों को ही बोलना सत्य महाव्रत है / अतः अहितकर और अप्रिय वचन सत्य होने पर भी त्याज्य हैं / इसी प्रकार साधु के द्वारा असभ्य वचन भी नहीं बोले जाने चाहिए।' इसके अतिरिक्त 'अच्छा भोजन बना है' अथवा 'अच्छी तरह पकाया गया है' इस प्रकार की सावध वाणी तथा 'यह अवश्य ही ऐसा होगा' इस प्रकार बोलने से हिंसा की एवं निश्चयात्मक वाणी बोलने से मिथ्या होने की आशंका बनी रहती है / सत्य महाव्रत की पांच भावनाएं : क्रोध, भय, हास्य, लोभ और मोह का त्याग, होने से सत्य महाव्रत की पाँच भावनाएं बनती है / (1) क्रोध-त्याग : कई बार क्रोधवश झूठ बोला जाता है / अतः सर्वप्रथम तो क्रोध में न आएं और यदि कभी क्रोधावेश आ भी जाए 1. दे०-त० वृ०७.४ 2. कोहा वा जइ वा हासा लोहा वा जइवा मया / सूसं न वयई जो उ तं वयं बूम माहणं / / उ० 25.24 निच्चकालप्पमत्तेणं मुसावायविवज्जणं / भासिव्वं हियं सच्चं निच्चा उत्तेण दुक्करं / / वही, 16. 27 3. वयजोग सुच्चा न असममाहु / वही, 21.14 4. मुसं परिहरे भिक्खू न य ओहारिणीं वए / भासा--दोसं परिहरे मायं च वज्जए सया / / वही, 1.24 सुकडे त्ति सुपक्के त्ति सुच्छिन्ने सुहडे मडे / सुणि ट्ठिए सुलढे त्ति सावज्जं वज्जए मुणी / / वही, 1.36 5. कोहभय हासलोहा मोहा विवरीयभावणा चेव / - विदियस्स भावणाए उ पंचेव य तहा होति / / चारित्तपाहुड, गा० 32