________________ आचार्य - परमेष्ठी 111 है, उसी प्रकार माया रूपी भावशल्य आत्मा को संतप्त करता है। माया मित्रता को नष्ट कर डालती है / ' माया को तिर्यञ्च आयु के बन्ध का कारण कहा गया है। __सच्चा व्रतधारी वही है, जो मायाशल्य से रहित हो / अतः आचार्य कहीं भी माया का सेवन नहीं करते और यदि कभी कारण वश इस प्रकार के भाव उत्पन्न हो भी जाएं तो ऋजु भाव से उन्हें तुरन्त निष्फल कर देते हैं / (4) लोभ कषाय: _लालच, प्रलोभन, लालसा, तृष्णा आदि सब लोभ के पर्याय हैं / लोभ मनुष्य के समस्त गुणों का विनाशक है। इसलिए लोभ को पाप का बाप कहा गया है 'लोभ पाप को बाप बखाना''लोभ के जाल में फंसकर प्राणी क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, अपमान एवं मारपीट आदि अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करते हैं। लोभ के ही वश मे हो कर मनुष्य मायाजाल रचता है तथा उसके हृदय से सन्तोष, परोपकार, दया एवं क्षमा आदि सभी मानवीय गुण समाप्त हो जाते हैं। लोभी व्यक्ति प्राणियों की हिंसा से भी नहीं चूकता और अन्त में वह दुर्गति को ही प्राप्त करता है / अतः आचार्य अपनी साधना की सफलता के लिए सदा लोभरहित रहते हैं / (ई) पञ्च महाव्रतधारक आचार्य : आचार्य अहिंसा, सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों का, प्रत्येक की पाँच-पाँचभावनाओंसहित,तीन करण (कृत, कारित,अनुमोदित) एवं तीन योग (मन, वचन, काया) से दृढ़तापूर्वक स्वयं पालन करते हैं और संघ के साधुओं एवं साध्वियों को भी इनका पालन करने के लिए प्रेरणा देते हैं / __ अहिंसाआदि को महाव्रत क्यों कहा गया है? महाव्रत नाम की सार्थकता बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि महापुरुष अर्थात् गुरुओं के भी गुरु इनकी साधना करते हैं / पूर्ववर्ती महापुरुष अर्थात ऋषभ से लेकर महावीर स्वामी पर्यन्त समस्त तीर्थंकरों, गौतम आदि गणधरों एवं श्रुतकेवलियों ने इनका आचरण किया है तथा ये स्वयं भी महान् हैं, श्रेष्ठ हैं / अतः इन्हें महाव्रत कहा गया है / 1. माया मित्ताणि नासेइ / दश० 8.37 2. माया तैर्यग्योनस्य / त० सू० 6.17 3 निशल्यो व्रती, / त० सू० 7.13 4. लोहो सव्वविणासणो / दश० 8.37 5. जैन पूजन पाठ प्रदीप, पृ० 163 अहिंस सच्च च अतेणगं च तत्तो य बम्भं अपरिगहं च / पडिवज्जिया पंच महव्वयाणि चरिज्ज धम्मं जिणदेसियं विऊ / / उ० 21. 12 7. साहति जं महल्ला आयरियं जं महल्लपुवेहिं . जं च महल्लाणि तदो महल्लया इतहे ताई / / चारिपाहुड़, गा० 30