________________ 108 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (कटिप्रदेश आदि) एवं अनेक प्रकार की मनोहर मुद्राओं को देखने से चक्षुराग उत्पन्न होता है / अतः ब्रह्मचारी को चक्षुरिन्द्रिय के विषय भूत स्त्रियों के रूप आदि का दर्शन नहीं करना चाहिए / 'यदि कभी नजर पड़ भी जाए तो वीतरागतापूर्वक शुभ ध्यान करना चाहिए / (5) स्त्रियों के विविध शब्द श्रवण-वर्जन : जिस प्रकार मेघ की गर्जन सुनकर मोर प्रमुदित हो जाता है, उसी प्रकार पर्दे अथवा दीवार आदि के पीछे से दाम्पत्यसहचार तथा अन्य कामवर्धक गीत,शब्द एवं हास्यपूर्ण बातें सुनने से काम-विकार उत्पन्न होता है ।अतः ब्रह्मचारी को चाहिए कि वह स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत एवं हास्य आदि को न सुने / (6) पूर्वभुक्त कामभोगों का स्मरण वर्जन : - ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य-व्रत लेने से पहले अनुभव की गई कामक्रीड़ा इत्यादि का स्मरण नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से मन विचलित हो सकता है एवं ब्रह्मचर्य-व्रत खण्डित हो सकता है। (7) कामोत्तेजक सरस भोजन-पानवर्जन: घी, दूध आदि रसयुक्त पौष्ठिक भोजन-पान करने से कामवासना भड़क सकती है ।अतः ब्रह्मचारी के लिए सदैव सरस,स्वादिष्ट एवं कामवासना को बढ़ाने वाले भोजन का त्याग आवश्यक है / (8) अत्यधिक भोजन-पानवर्जन : जो ब्रह्मचारीप्रमाणसेअधिकखाता-पीता है, उसके ब्रह्मचर्य के खण्डित होने की संभावना बनी रहती है कारण कि प्रमाण से अधिक भोजन करने वाले की कामाग्नि शान्त नहीं होती है / अतः उसे चित्त की स्थिरता के लिए एवं ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए धर्म की मर्यादानुसार प्राप्त परिमित भोजन ही करना चाहिए / 1. अंगपच्चंग-संठाणं चारुल्लविय-पेहियं / ___ बंभचेररओ थीणं चक्खुगिज्झं विवज्जए / / उ० 16.4 2. इत्थीजणस्सारियझाणजोग्गं / वही, 32.15 3. कुइयं रुइयं गीथं हसियं थणिय-कन्दियं / बम्भचेररओ थीणं सोयागिझं विवज्जए / / वही, 16.5 4. हा किड्ड रइं दप्पं सहसावत्तासियाणि य / __ बम्भचेररओ थीणं नाणुचिन्ते कयाइ वि / / वही, 16.6 5. पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवड्ढणं / बम्भचेररओ भिक्खू निच्चसो परिवज्जए / / वही, 16.7 6. धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्थं पणिहाणवं / नाइमत्तं तु भुंजेज्जा बम्भचेररओ सया / / वही, 16.8