________________ ' 80 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी से इन कर्मों का क्षय कर देता है, तब सिद्ध-अवस्था की प्राप्ति होती है। वैसे तो परमात्मा अनन्त गुणों की खान हैं, फिर भी उनमें स्वतः ही उपर्युक्त आठ गुणों का आविर्भाव हो जाता है। इन्हें ही सिद्धों के मूलगुण के रूप में स्वीकार किया गया है। ये विशिष्ट गुण हैं - (1) अनन्तज्ञान :ध्यान योग के बल से ज्ञानावरणीय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने पर सिद्ध भगवान् में अनन्त (केवल) ज्ञान प्रकट हो जाता है जिससे वे युगपत् सर्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को जानते हैं। (2) अनन्तदर्शन :जब तपोबल से दर्शनावरणीय कर्म का भी सर्वथा क्षय हो जाता है तब भव्यात्मा (सिद्ध) को अनन्तदर्शन गुण की उपलब्धि हो जाती है। अब वह लोक-अलोक के समस्त पदार्थों को देखने में समर्थ हो जाता है। (3) अनन्तसुख:वेदनीय कर्म का सर्वथा क्षय होने से उन्हें अनन्त सुख की प्राप्ति हो जाती है। इसे दूसरे शब्दों में अव्याबाध सुख भी कहते हैं। जो सुख पौद्गलिक संयोगसे मिलता है, वह संयोगिक सुख कहलाता है और जिसमें किसी न किसी प्रकार की विघ्न-परम्परा का आना भी हो सकता है, परन्तु जो सुखपौद्गलिक संयोग से रहित होता है उसमें कभी भी किसी प्रकार के विध्नों का आना सम्भव ही नहीं होता। इसी कारण वह अनन्त अव्याबाघ सुख के नाम से जाना जाता है। (४)अनन्तवीर्यःविधनस्वरूपअन्तरायकर्मकाक्षय होने पर सिद्धभगवान् अनन्तवीर्य को प्राप्त कर लेते हैं। तब वे अनन्त शक्तिमान् हो जाते हैं। (5) सम्यक्त्व :दर्शन मोहनीय और चारित्र मोहनीय, जो आत्मा के तत्त्वश्रद्धानरूपगुणऔर वीतरागत्व की प्राप्ति में विध्नस्वरूप हैं, उनके क्षय होने पर आत्मा सम्यक्त्व को धारण कर लेता है जिससे आत्मा स्व-स्वरूप में रमण करने लगता है। (6) अवगाहनत्व :आयुष्य कर्म की स्थिति का पूर्ण रूप से क्षय होने पर सिद्ध जीवों को अवगाहनत्व गुण की भी प्राप्ति हो जाती है। तब सिद्ध जीवों को जन्म एवं मरण नहीं होते। वे सदा ही स्वस्थिति में लीन रहते 1. (क) कृत्स्नकर्मक्षयाज्ज्ञानं क्षायिकं दर्शनं पुनः / . प्रत्यक्षं सुखमात्मोत्थं वीर्यञ्चेति चतुष्टयम्।। सम्यक्त्वं चैव सूक्ष्मत्वमव्याबाधगुणःस्वतः / अस्त्यगुरुलघुत्वं च सिद्धे चाष्टगुणाःस्मृताः / / पंचाध्यायी, 2.6 17-18 (ख) सम्मत णाणं दंसणवीरिय सुहमं तहेव अवगहणं। अगुरुलहुमव्वावाहं सिद्धाणं वणिया गुणद्वेदे / / वसुनन्दि श्रावकाचार, गा० 537