________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (1) पूर्व संस्कार : जिस प्रकार कुम्हार के हाथ और दण्डे से चाक को एक बार घुमा देने पर वह चाक पूर्व-संस्कार से बराबर घूमता रहता है उसी प्रकार मुक्त जीव पूर्व संस्कार से ऊर्ध्वगमन करता है। (2) कर्मसंगरहित हो जाना : जिस प्रकार मिट्टी के लेपसे युक्त तूंबी जल में डूब जाती है और लेप के दूर (नष्ट) होने पर वही ऊपर आ जाती है उसी प्रकार कर्मलेप से रहित जीव स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करता हैं (3) बन्ध का नाश हो जाना : जिस प्रकारस एरण्ड वृक्ष का सूखा बीज फली के फटने पर ऊपर को जाता है उसी प्रकार मुक्त जीव कर्मबन्ध से मुक्त होते ही ऊर्ध्वगमन करता है। (4) ऊर्ध्वगमन का स्वभाव: जिस प्रकार वायुरहित स्थान में अग्नि की शिखा स्वभाव से ऊपर की ओर जाती है उसी प्रकार मुक्त जीव भी स्वभाव से ही ऊर्ध्वगमन करता भगवती आराधना में बतलाया गया है कि 'जैसे वेग से पूर्ण व्यक्ति ठहरना चाहते हुए भी नहीं ठहर पाता उसी प्रकार ध्यान के प्रयोग से आत्मा ऊपर की ओर ही जाता है।' इस प्रकार ऊर्ध्वगमन करता हुआ आत्मा एक समय वाली विग्रहरहित गति से आकाश के प्रदेशों का स्पर्श न करते हुए तीव्रवेग से लोक के शिखर पर विराजमान हो जाता है और वह सदैव के लिए वहीं ठहर जाता है। आगे अलोक में नहीं जाता। पुनः यहां प्रश्न उठता है कि मुक्त आत्मा लोक के अग्रभाव से आगे गति क्यों नहीं करता? इस प्रश्न के समाधान स्वरूप कहा गया है कि 'धर्मद्रव्य लोक के अग्रभाग तक ही है उसके आगे नहीं।अतःमुक्तजीव लोकाग्र से आगे 1. झाणेण य तह अप्पा पओगदो जेण जादि सो उड्ढं। . वेगेण पूरिदो जह ठाइदुकामो विय ण ठादि।। भग०आ०, गा०२२२३ 2. तो सो अविग्गहाए गदीए समए अणंतरे चेव। पावदि जयस्स सिहरं खित्तं कालेण य फुसंतो।। वही, 22.25