________________ सिद्ध परमेष्ठी (ठ) सिद्धों के प्रकार : स्थानाङ्गसूत्र में सिद्ध की एकता का प्रतिपादन किया गया है / आगे चलकर उनके पन्द्रह प्रकार बतलाए गए हैं परन्तु सिद्धों में आत्मा का पूर्ण विकास हो चुका होता है वे सभी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सकल कर्मों के बन्धन से रहित तथाअनुपम सुखआदिसे सम्पन्न होते हैं / अतः आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से उनमें कोई भीभेद नहीं होता ।इसी अभेद की दृष्टि से कहा गया है कि सिद्ध एक है। सिद्धों में जो भेद का प्रतिपादन किया गया है वह अन्तिम जन्म की उपाधि की अपेक्षा से है / तत्त्वार्थसूत्र में बतलाया गया है कि भूतकाल की अपेक्षा से सिद्ध जीवों में क्षेत्र, काल गति, लिंग इत्यादि की दृष्टि से किञ्चित् भेद सम्भव है / वस्तुतः सिद्ध जीवों के अशरीरी होने से उनमें गति, लिंग इत्यादि सांसारिक भाव नहीं रहते | अतः उनमें किसी भी प्रकार का भेद नहीं पाया जाता है। पूर्वजन्म के विविध सम्बन्ध सूत्रों के आधार पर निम्नलिखित पन्द्रह प्रकार के सिद्ध माने गए हैं (1) तीर्थसिद्धःतीर्थकी विद्यमानता में जो सिद्ध हुए हैं वे तीर्थसिद्ध हैं। (2) अतीर्थसिद्ध : जो तीर्थ की स्थापना से पहले या तीर्थ के विच्छेद के पश्चात् जाति स्मरण आदि के दौध को प्रात कर सिद्ध हुए, वे अतीर्थसिद्ध हैं / (3) तीर्थकर सिद्ध :जो तीर्थकर के रूप में सिद्ध होते हैं, वे तीर्थकर सिद्ध हैं। (4) अतीर्थकर सिद्ध :जो सामान्य केवली के रूप में सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थकर सिद्ध हैं (5) स्वयंबुद्धसिद्धःजो गुरु-उपदेशऔर बाह्य निमित्त के बिना स्वयं 1. एगे सिद्धेश ठाणं, 1.52 2. दे० वही, 1.214-228 3. क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधित ज्ञानावगाहनान्तरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः / त० सू० 10.7 4. अणंतरसिद्धकेवलनाणं पन्नरसविहं पण्णत्तं, तं जहा-(१) तित्थसिद्धा, (2) अतित्थसिद्धा, (3) तित्थयरसिद्धा, (4) अतित्थयरसिद्धा, (5) सयंबुद्धसिद्धा, (६)पत्तेयबुद्धसिद्धा. (7) बुद्धबोहियसिद्धा,(द) इथिलिङ्गसिद्धा, (६)पुरिसलिंगसिद्धा, (10) नपुंसलिंगसिद्धा, (११)सलिंगसिद्धा.(१२)अण्णलिंगसिद्धा, (13) गिहीलिंगसिद्धा, (14) एगसिद्धा, (15) अणेगसिद्धा / नन्दीसूत्र, केवलज्ञान प्रकरण।