________________ आचार्य - परमेष्ठी 103 है / उसका एक मात्र मुख्य गुण अथवा कार्य सर्वज्ञ की वाणी, 'मन्त्र अथवा सूत्रगत सद्धर्म की व्याख्या करना है / भगवतीसूत्र में आचार्य शब्द का निर्वचन करते हुए बतलाया गया है. कि आ यहाँ मर्यादा का द्योतक है अर्थात् मर्यादापूर्वक अथवा उचित विनय से जिनशासन धर्मोपदेशक के रूप में मोक्षाभिलाषी व्यक्तियों के द्वारा जिसकी उपासना की जाती है, वह आचार्य है-- 'आ-मर्यादया तद्विषयविनयरूपया चर्यन्ते-सेव्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतयातदाकाङ्क्षिभिरित्याचार्याः / 2 यहाँ आगे भी बतलाया गया है कि आ मर्यादा और चार विहार या आचार का द्योतक है | साधु आचार का स्वयं मर्यादापूर्वक पालन करने से, दूसरों कोआचार के विषय में बतलानेसेऔरआचार के विषय में मार्ग-प्रदर्शन करने से आचार्य कहलाते हैं |आचार्य पाँच प्रकार के आचार का स्वयं आचरण करते हुए सुशोभित होते हैं और अपने उस आचरित आचरण को दूसरों के लिए भी व्याख्यान करते हैं तथा उन्हें कल्याण मार्ग दिखलाते हैं / इसी कारण वे आचार्य कहलाते हैं / धवला टीका में भी कहा गया है कि जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और वीर्य इन पाँच आचारों का स्वयं आचरण करते हैं और दूसरे सन्तों व साधुओं से आचरण कराते हैं, उन्हें आचार्य कहते हैं / चतुर्दश विद्यापारगामी आचार्य : वे आचार्य चौदह विद्यास्थानों में पारंगत और ग्यारह अंग के धारक होते हैं / वे आचार्य तत्कालीन स्वसमय और परसमय में निष्णात् मेरु के समान निश्चल और पृथ्वी के समान सहनशील होते हैं / आचार्य समुद्र के समान मलों (= दोषों) को बाहिर फेंक देते हैं और वे सात प्रकार के भय से - 1. 'मन्त्रं श्रुतं कृतवान् इति मन्त्रकृत' से भगवान् जिनेन्द्र मन्त्रकृत कहलाते हैं। जिनसहस्रनाम, 5.68 स्वोपज्ञवृत्ति 2. भग० वृ० प०३ 3. आ- मर्यादया वा चारो-विहारः आचारस्तत्र साधवः स्वयंकरणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाच्चेत्याचार्याः, आह च-पंचविहं आयारं आयरमाणा तहा पयासंतो। आयारं दंसंता आयरिया तेण वुच्चंति / / वही 4. चोदसदसणवपुव्वी महामदी सायरोव्व, गंभीरो / कप्पववहारधारी होदिहु आधारवं णाम / / भग० आ०, गा०४३० 5. इहलोकभय, परलोकभय, अत्राणभय, अकस्मात्भय, अगुप्तिभय, मरणभय तथा वेदनाभय ये सात प्रकार के भय हैं दे० मूला० 2.53