________________ 102 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी धर्मप्रदीप गुरु : आचार्य प्राणियों के लिए धर्म के मार्ग का प्रदर्शन करते हैं / अन्धकार में भटकते हुए, स्थान-स्थान पर ठोकरें खाते हुए मनुष्य के लिए दीपक का जितना महत्त्व है, उतना ही, बल्कि उससे भी कहीं अधिक बढ़कर जिज्ञासु प्राणी के लिए गुरु का महत्त्व है / अतएव वे जगत् में सत्त्वों के धर्म प्रदीप हैं। एक प्रसिद्ध श्लोक में कहा भी गया है कि अज्ञानरूपीअन्धकार से अन्धे बने हुए मनुष्य के नेत्रों को जो ज्ञानरूपीअञ्जनशलाका सेखोल देते हैं, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है-- अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया / चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः / / ' यथार्थ धर्मगुरु : आचार्य : __ स्थानाङ्गसूत्र में आता है कि दो प्रकार से आत्मा को धर्म के स्वरूपकी उपलब्धि हो सकती है--(१) सुनकर और (2) विचारकर / जब तक व्यक्ति धर्मशास्त्रों का श्रवण ही नहीं करता, तब तकधर्मतत्त्व का मनन एवं चिन्तन भी वह नहीं कर सकता / यह शास्त्र श्रवण गुरु से ही हो सकता है / विशुद्ध धर्म के सच्चे सन्देशवाहक गुरु ही होते हैं / अतः धर्मगुरु आचार्य का पद अत्यन्त महनीय, पूजनीय एवं वन्दनीय है / (ख) आचार्य पद की व्युत्पत्तिलभ्य व्याख्या : आङ्पूर्वक चर् धातु से ण्यत् प्रत्यय के जुड़ने पर आचार्य पद बनता है जिसका अर्थ है-- अध्यापक या गुरु / वैसे देखा जाए तो चर्, धातु चलने अथवा आचरण करने के अर्थ में प्रयुक्त होती है / इस प्रकार आचार्य एक ऐसा व्यक्ति होता है जो स्वयं उत्तम आचरण करता हुआ अन्य जन समुदाय को भी उसके आचरण की प्रेरणा देता है / अतः यहां आचार्य शब्द विशेष रूप से धार्मिक गुरु के लिए प्रयुक्त हुआ है / मनुस्मृतिकार के अनुसार आचार्य वह ब्राह्यण होता है जो शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार कर उसे कल्प (यज्ञविद्या) तथा रहस्यों (उपनिषदों) सहित वेदों को पढ़ाता है | अमरकोषकार की दृष्टि में जो मन्त्र की व्याख्या करने वाला, यज्ञ में यजमान को आज्ञा देने वाला और व्रतों का आचरण करने वाला है, वही आचार्य है। किन्तु जैन आचार्य के गुणों में महाव्रतों का सर्वोत्तम स्थान 1. उद्धत-जैन तत्त्व कलिका, पृ० 123 2. 'सोच्चा अभिसमेच्च' / ठाणं, स्थान 2 3. आचर्यतेऽसावाचार्य : / अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग-२, पृ०३२६ 4. उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद द्विजः / सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते / / मनुस्मृति, 2. 140 5. मन्त्रव्याख्याकृदाचार्य आदेष्टा त्वध्वरे व्रती / अमरकोष, 2.7.7