________________ 104 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी रहित होते हैं / इन सभी गुणों के होने से वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठा पाते हैं।' साक्षात् जिन बिम्ब आचार्य : आचार्य कुन्दकुन्द की दृष्टि में आचार्य वे हैं 'जो ज्ञानमय हैं, संयम से शुद्ध हैं, अत्यन्त वीराग हैं तथा कर्मो का क्षय करने वाली दीक्षा और शिक्षा देते हैं / ऐसे आचार्य परमेष्ठी जिनेन्द्र देव के साक्षात् प्रतिबिम्ब होते हैं -- जिणबिम्बं णाणमयं संजमसुद्धं सुवीयरायं च / जं देइ दिक्खासिक्खा कम्मक्खयकारणे सुद्धा / / संग्रहानुग्रही आचार्य : जैनाचार्य सदैवआचारवेत्तातोहोते ही हैं साथ ही वे संग्रह और अनुग्रह 4 में कुशल, सूत्र के अर्थ में विशारद, कीर्ति से प्रसिद्धि को प्राप्त, चारित्र में तत्पर तथा उपादेय एवं अनुपादेय व्याख्यान में निपुण होते हैं / 5 वे आचार्य स्वभाव से गम्भीर, दुर्धर्ष, शूरवीर, धर्म की प्रभावना करने वाले तथा भूमि, चन्द्र एवं समुद्र के समान गुणों वाले होते हैं / दुधर्ष एवं अगाधगुण सम्पन्न आचार्य : वे क्षोभ रहित आचार्य अगाध गुण सम्पन्न होने से गंभीर होते हैं / इन गुणों के होने से वे परवादियों द्वारा पराभूत नहीं किए जा सकते / अतः वे दुर्धर्ष होते हैं / शूरवीर एवं धर्म प्रभावक आचार्य : शौर्य गुण से युक्त होने से शूरवीर और धर्म की प्रभावना करने के 1. णमो आइरियाणं-पञ्चविधमाचारं चरति चारयतीत्याचार्यः / चतुर्दश-विद्यास्थानपरागः एकादशाङ्गधरः आचाराङ्गधरो वा तात्कालिक स्वसमयपरसमयपारगो वा मेरुरिव निश्चलः क्षितिरिव सहिष्णुः सागर इव बहिः क्षिप्तमलः सप्तभयविप्रमुक्तः आचार्यः | धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पृ०४६-५० 2. बोधपाहुड, गा० 16 3. सदा आयारविद्दण्हू सदा आयरियं चरो / __ आयारमायारवंतो आयरिओ तेण उच्चदे / / मूला०७.५०६ 4. दीक्षा आदि देकर अपना बनाना संग्रह है और फिर ऐसे शिष्यों का शास्त्रादि के द्वारा संस्कार करना अनुग्रह कहलाता है / दे०-मूला० 10.4.158 5. संगहणुग्गहकुसलो सुत्तत्थविसारओ पहियाकित्ती / किरिआचरणसुजुत्तो गाहुय आदेज्जवयणो य / / मूला०, गा० 4.158 6. गंभीरो दुद्धरिसो सूरो धम्मप्पहावणासीलो / खिदिससिसायरसरसो कमेण तं सो दु संपत्तो / / वही, गा० 4.156