________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी ऊर्ध्वलोक एवं अधोलोक से सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या का जो उल्लेख किया गया है वह भी वहां पर विद्यमान मनुष्यगति के जीवों की अपेक्षा से ही है जो किसी विशेष कारण से वहां चले गए हैं / अतः यह स्पष्ट ही है कि मात्र मनुष्य ही मोक्ष का अधिकारी है। दिगम्बर परम्परा में तो मनुष्य गति में भी केवल पुरुष को ही मुक्ति का अधिकारी बतलाया गया है, स्त्री एवं नपुंसक को नहीं।' यहां पर गृहस्थ एवं जैनेतर साधु को जो मुक्ति का अधिकारी बतलाया गया है वह बाह्य उपाधि की अपेक्षा से है क्योंकि भाव की दृष्टि से तो पूर्ण-वीतरागत्व को प्राप्त करना सभी के लिए नितान्त आवश्यक है / गृहस्थ एवं जैनेतर साधुओं में बिरले ही जीव इस पद को प्राप्त करते हैं। अतः एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वाले ऐसे जीवों की संख्या जैन साधुओं की अपेक्षा कम बतलाई गई है। एक समय में सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या : यहां पर एक समय में अधिक से अधिक सिद्ध होने वाले जीवों की जो संख्या बतलाई गई है उसका तात्पर्य यही है कि यदि एक ही समय में जीव अधिक से अधिक संख्या में सिद्ध हों तो 108 ही सिद्ध हो सकते हैं, इससे अधिक नहीं परन्तु एक समय में कम से कम कितने सिद्ध हो सकते हैं इस विषय में यहां कोई संकेत उपलब्ध नहीं होता है / अतः ऐसा भी हो सकता है कि किसी समय में एक भी जीव सिद्ध न हो / इस विषय में तत्त्वार्थवृत्तिकार का अभिमत है कि संख्या की अपेक्षा जघन्य से एक समय में एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट से एक समय में एक सौ आठ जीव सिद्ध होते हैं / यदि जीव लगातार सिद्ध होते रहें तो जघन्य दो समय और उत्कृष्ट आठ समय काअन्तर होगा अर्थात् इतने समय तक सिद्ध होते रहेंगे और यदि सिद्ध होने में व्यवधान पड़ेगा तो जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास का अन्तर होगा। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हो सकता है किसी एक समय में सिद्ध होने में व्यवधान आ जाए और एक भी जीव सिद्ध न हो सके / - 1. न स्त्रीमोक्षमेति दिगम्बरः / जिनदत्त सूरि, उद्धत (बलदेव), भारतीय दर्शन, पृ०६३ 2. जघन्येन एकसमये एकः सिद्धयति।। उत्कर्षेण अष्टोत्तरशतसंख्या एकसमये सिद्धयन्ति। त०वृ० 10.6, पृ० 325 3. सिध्यतां पुरुषाणां किमन्तरं भवतीति प्रश्ने निकृष्टत्वेन द्वौ समयौ भवतः उत्कर्षण अष्टसमया अन्तरं भवति / वही, पृ०३२५ 4. द्वायपि भेदौ जघन्यस्य। जघन्येन एकः समयः / उत्कर्षेण षणमासा अन्तरं भवति / वही, पृ० 325