________________ सिद्ध परमेष्ठी होने तक की वृद्धि करना शेष है। इसी से उन्हें 'वृद्ध' विशेषण दिया गया है। (ण) अरहन्तों के पूज्य सिद्ध सिद्धअरहन्तों के लिए पूज्य हैं | शिव-सिद्ध का कीर्तन करने के कारण ही अरहन्तों को 'शिवकीर्तन' कहा जाता है, वे दीक्षा के समय सिद्धों को ही नमस्कार करते हैं। यही दोनों में चौथा विशेष अन्तर है। भगवतीसूत्र में उनके ज्ञान के आधार पर दोनों में भेदाभेद का निरूपण किया गया है। गौतम स्वामी के द्वारा पूछे जाने पर भगवान् महावीर उत्तर देते हैं कि 'जिस प्रकार केवली(अरहन्त) छद्मस्थ को जानते और देखते हैं, उसी प्रकार सिद्ध भी छद्मस्थ को जानते और देखते हैं, तथा 'जिस प्रकार केवली सिद्ध हो जानते और देखते हैं, उसी प्रकार सिद्ध भी सिद्धों को जानते और देखते हैं किन्तु जिस प्रकार केवली बोलते हैं और प्रश्न का उत्तर देते हैं, उस प्रकार सिद्ध नहीं बोलते हैं और न ही प्रश्न का उत्तर देते हैं। इसका कारण यह है कि केवलज्ञानी (अरहन्त) उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पराक्रम से संयुक्त होते हैं जबकि सिद्धों में ये बातें नहीं होती हैं। अतः सिद्ध केवलज्ञानी के समान उत्तर-प्रत्युत्तर नहीं करते। धवला टीका में अरहन्त एवं सिद्ध के विषय में आचार्य वीरसेन ने गहन चिन्तन करते हुए बतलाया हैं कि सिद्ध आठ कर्मो को नष्ट करते हैं / इस दृष्टि से दोनों में भेद है किन्तु इन दोनों में घातिया कर्मो के नष्ट होने पर आविर्भूत निखिल अपने आत्मगुणों में कोई भेद नहीं है। इसका एकमात्र कारण यह है कि अरहन्त शुक्लध्यान रूप अग्नि से चार घातिया कर्मों को तो पूर्णरूप से नष्ट कर ही देते हैं साथ ही उनके आयुष्य आदि अघातिया कर्म भी उस ध्यानाग्नि से अधजले से हो जाते हैं जिससे वे उनके उदय में नहीं आते अर्थात् आयु आदि कर्म अपने कार्य-फल में असमर्थ से रहते हैं जबकि सिद्धों के शरीर-पतन के साथ ही ये आयुष्य आदि चार अघातिया कर्म भी नष्ट हो जाते 1. दे०-जिनसहस्रनाम, 10.131 2. (क) शिवानां सिद्धानां वा कीर्तनं यस्य सः शिवकीर्त्तनः। दीक्षावसरेःनमः सिद्धेभ्यः' इत्युच्चारणत्वात् / जिनसहस्रनाम,७.६५ श्रुतसागरी टीका। (ख) सिद्धाणं णमोक्कारं करेइ / आयारचूला, 15.32 3. दे०-भग० 14.138-144 4. सिद्धानामर्हतां च को भेद इति चेन्न, नष्टाष्टकर्माणः सिद्धा नष्टधातिकर्माणोऽर्हन्त इति तयोर्भेदः / नष्टेषु घातिकर्मस्वाविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतस्तयोर्भेदइति / धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पृ०४७