________________ 87 सिद्ध परमेष्ठी (झ) सिद्धों का निवास स्थान : सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होते ही मुक्त जीव तुरन्त लोक के अन्त तक ऊपर जाता है। कर्मक्षय और ऊर्ध्वगमन में यौगपद्य सम्बन्ध बतलाया गया है। जिस प्रकार द्रव्यकर्म की उत्पत्ति का प्रारम्भ और विनाश साथ ही साथ होते हैं, उसी प्रकार सिद्ध भगवान् की मोक्ष विषयक गति संसार के क्षय होते ही साथ ही साथ होती है। जिस प्रकार प्रकाश की उत्पत्ति और अन्धकार का विनाश एक साथ होता है उसी प्रकार निर्वाण की उत्पत्ति और कर्मों का विनाश भी एक साथ होता है / इस प्रकार कर्मक्षय होते ही मुक्त जीव ऊर्ध्वगमन करता है। ऐसा मान लेने पर यहां यह प्रश्न उठता है कि कर्म या शरीर आदि पौद्गलिक पदार्थों की सहायता के बिना अमूर्त जीव गति कैसे करता है? ऊर्ध्वगति ही क्यों करता है? अधोगति अथवा तिर्यक् (तिरछी) गति क्यों नहीं करता? ऊर्ध्वगति के कारण : उपर्युक्त प्रश्नों के समाधान में वाचक उमास्वाति ने मूलतः चार बातें बतलायीं हैं वे हैं (1) पूर्व के संस्कार से, (2) कर्म के संगरहित हो जाने से, (3) बन्ध का नाश हो जाने से और (4) ऊर्ध्वगमन का स्वभाव होने से, मुक्तजीव ऊर्ध्वगमन करता है। संसारी जीव ने मुक्त होने से पहले कई बार मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्न किया है। इसी से पूर्व का संस्कार रहने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है। जीव जब तक कर्मभारसहित रहता है तब तक संसार में बिना किसी नियम के गमन करता है और कर्मभार से रहित हो जाने पर ऊपर की ओर गमन करता है। अन्य जन्म के कारण गति, जाति आदि समस्त कर्मबन्ध के नाश हो जाने से जीव ऊर्ध्वगमन करता है और आगम में जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगमन करने का बतलाया गया है। अतः कर्मों के नष्ट हो जाने पर अपने स्वभाव के अनुसार जीव का ऊर्ध्वगमन ही होता है। तत्त्वार्थवृत्तिकार ने उपर्युक्त मुक्त जीव के ऊर्ध्वगमन के चार कारणों को चार दृष्टान्तों द्वारा निम्न प्रकार से स्पष्ट किया है१. तदन्तरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तात् / / त०सू० 10.5 2. द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्त्पत्यारम्भवीतयः / समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् / / उत्पत्तिश्च विनाशश्च प्रकाशतमसोरिह। युगपदभवतो यद्वत्तद्वन्निर्वाणकर्मणोः / / त०सा०८.३५-३६ 3. पूर्वप्रयोगादसङ्गत्वाबन्धछेदात्तथागतिपरिणामाच्च तद्गतिः / तसू०, 10.6 4. दे०-त०वृ०, 10.6, पृ० 321.22 5. दे०-वही, 10.7, पृ०३२२.२३