________________ सिद्ध परमेष्ठी अलोक में गमन नहीं करता क्योंकिधर्मद्रव्य गति करते हुए जीवों और पुद्गलों की गति में उपकार करता है।' (ञ) सिद्धशिला: ऊर्ध्वगमन के पश्चात् सिद्ध भगवान् लोक के उपरितम भाग में निवास करते हैं / यह स्थान लोकाग्रवर्ती सिद्धशिला के नाम से प्रसिद्ध है इसे निर्वाण अव्याबाध, सिद्धि,लोकाग्र,क्षेम, शिव और अनाबाध नाम से भी जाना जाता है। इसे ही महर्षिगण प्राप्त करते हैं।' (अ) सिद्धशिला बैकुण्ठ परमधाम : जैनेतर जगत् में इसे ही बैकुण्ठ या परमधाम के नाम से पुकारा जाता है। स्वयं प्रकाशमान जिस परम पद को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा एवं न अग्नि ही प्रकाशित कर सकती है, तथा जिस परम पद को प्राप्त होकर मनुष्य पुनः संसार में नहीं आते वह परमधाम कहा गया हैं। उसे ही अव्यक्त, अक्षर एवं परमगति इत्यादि नामों से भी पुकारा गया है। (आ) सिद्धक्षेत्र की स्थिति : यहां सहज ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि यह सिद्धक्षेत्र अथवा परमधाम विश्व के कौनसे भाग में अवस्थित है? उसकी क्षेत्र-परिधि क्या है? इस सम्बन्ध में जैनेतर दर्शन तो प्रायः मौन ही हैं। वहां आत्मा को सर्वव्यापक माना गया है। अतः उनके मत में तो सम्पूर्ण जगत् ही सिद्धों का क्षेत्र कहा जा सकता है परन्तु जैनदर्शन इस विषय में अपना विशिष्ट मन्तव्य प्रस्तुत करता है। क्षेत्र की दृष्टि से विश्व को दो भागों में बांटा गया है। इसका वह भाग जहां पर जीव तथा अजीव दोनों ही पदार्थों की सत्ता है वह लोक है तथा दूसरा भाग जहां अजीव का एक देश (भाग) केवल आकाश है, वह अलोक कहा जाता है। फिर लोक को भी तीन भागों में बांटा गया है-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक तथा अधोलोक। 1. धम्माभावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण / गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं च।। वही, 2228 2. सीयाए जोयणे तत्तो लोयन्तो उ वियाहिओ। उ० 36.61 3. निव्वाणं ति अबाहं ति सिद्धी लोगग्गमेव य। खेमं सिवं अणाबाहं जं चरन्ति महेसिणो।। वही, 23.84 4 न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः / यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम / / गीता, 15.6 5. अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् / यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम / / वही, 8.21 6. जीवा चेव अजीवा य एस लोए वियाहिए। अजोवदेसमागासे अलोए से वियाहिए।। उ०३६.२ 7. उड्ढे अहे य तिरियं च / वही, 36.50