________________ 78 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी ()सिद्ध :सिद्ध कृतकृत्य का नाम है, अथवा जिस जीव ने अपनी आत्म-साधना पूर्ण रूप से सिद्ध एवं सम्पन्न कर ली है, वह सिद्ध है। (२)बुद्ध केवलज्ञान के द्वारा समस्त विश्व को जानने वाले सिद्ध बुद्ध कहलाते हैं। (3) पारंगतःजो संसाररूपी समुद्र से पार हो चुके हैं वे सिद्ध पारंगत (4) परम्परागत :सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति, पुनः सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति, उसके बाद सम्यक् चारित्र की प्राप्ति रूप परम्परा से जो मोक्ष को प्राप्त करते हैं, वे ऐसे सिद्ध परम्परागत कहलाते हैं। (5) उन्मुक्त कर्मकवच :सब प्रकार के कर्मरूप कवच से रहित सिद्ध उन्मुक्त कर्मकवच होते हैं। (६)अजर:जरासे यहांअभिप्राय है वृद्धावस्थाऔर जिसे इसकाअभाव है वे ही अजर हैं। (7) अमर :जो कभी भी नहीं मरते, वेअमर हैं अथवा जो सदैव विद्यमान रहते हैं, वे अमर कहलाते हैं। () असंग:संग से अभिप्राय है आसक्ति अथवा लिप्त होना / जो सब प्रकार के क्लेशों से रहित अथवा निर्लिप्त हैं वे असंग कहलाते हैं। सिद्ध भगवान् के स्वरूप की दृष्टि से ये सभी पर्यायवाची शब्द सार्थक ही प्रतीत होते हैं। (ग) सिद्धगति का स्वरूप: भव्य जीवजब सिद्धगति को प्राप्त होजाता है तब वहअनुपमस्व-स्वरूप को धारण कर लेता है। प्रणिपातसूत्र (नमोत्थुणं) में सिद्धगति का बहुत ही सुन्दर विवेचन किया गया है। यहां सिद्धगति की शिव, अचल,अरुज, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध और अपुनरावृति ये सात विशेषताएं बतलाई गई हैं।' (1) शिव:शिव कल्याण एवं सुख का वाचक है। जो बाधा, पीड़ा और दुःख से रहित है वही शिव कहलाता है। सिद्धगति में केवल सुख ही. सुख है। वहां पर किसी भी प्रकार की पीड़ा या बाधा नहीं होती है। सिद्धगति में आनन्दरूपी दिवाकर का प्रकाश सदैव फैला हुआ रहता है। अतः सर्वथा सुखस्वरूप उस सिद्धगति को शिव कहा गया है। 1. शिवमलयमरुयमणन्तमक्खयमव्वावाहमपुणरावत्तयाँसिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं / / आवस्सयं.६.११