________________ अरहन्त परमेष्ठी 61 (13) हृदय ग्राहित्व-वचनों का श्रोताओं के हृदयों को आकृष्ट करने वाला होना। (१४)देशकालाव्यतीतत्व-देश-काल के अनुकूल एवं प्रस्तावोचित होना। (15) तत्त्वानुरूपत्व-वचनों का विवक्षित वस्तु के स्वरूप के अनुरूप होना। (16) अप्रकीर्णप्रसृत्व-निरर्थक विस्तार से रहित सुसम्बद्ध वचन होना। (17) अन्योऽन्यप्रगृहीतत्व-पदों का परस्पर सापेक्षता से युक्त होना / (१८)अभिजातत्व-वक्ता की कुलीनताऔर शालीनता का सूचक होना। (16) अतिस्निग्धमधुरत्व-अत्यन्त स्नेह एवं मधुरता से युक्त होना। (20) अपरमर्मविद्धत्व-किसी दूसरे के मर्म (हृदय) को चोट पहुंचाने वाला अथवा रहस्य को प्रकट करने वाला न होना / (21) अर्थधर्माभ्यासानपेत्व-अर्थ और धर्म के अनुकूल होना। (22) उदारत्व-तुच्छतारहित और उदारता से युक्त होना / (23) परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व-परनिन्दा और अपनी प्रशंसा से रहित होना अथवा वीतरागता से युक्त होना। (24) उपगतश्लाघत्व-'भगवान् धन्य हैं इस प्रकार जिन्हें सुनकर लोग प्रशंसा करें, ऐसे वचन होना। (25) अनपनीतत्व-फाल, कारक, वचन एवं लिंग, आदि व्याकरण के दोषों से रहित होना (26) उत्पादिताच्छिन्नकौतूहलत्व-वचनों का श्रोताजनों के हृदय में निरन्तर कौतूहल उत्पन्न करने वाला होना। (27) अद्भुतत्व-आश्चर्यजनक एवं अपूर्वभाव उत्पन्न करने वाला होना / (28) अनतिविलम्बित्व-अति विलम्ब से रहित धाराप्रवाह से बोलना / (26) विभ्रम-विक्षेप-किलकिञ्चतादि-विमुक्तत्व-मन की भ्रान्ति, विक्षेप, रोष और भय आदि से रहित होना। (30) अनेकजातिसंश्रयाविचित्रत्व-नय-प्रमाण आदि अनेक जाति के संश्रय के कारण विचित्रता से युक्त होना।