________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (31) आहितविशेषत्व-सामान्य वचनों से कुछ विशेषतायुक्त होना। (32) साकारत्व-पृथक्-पृथक् वर्ण, पद, वाक्य के आकार से युक्त होना। (33) सत्त्वपरिगृहीतत्व-साहस से परिपूर्ण वचन होना / (34) अपरिखेदित्व-खिन्नता से रहित वचन होना। (35) अव्यच्छेदित्व-विवक्षित अर्थ की सम्यक सिद्धि वाले वचन होना। (आ) दिव्यध्वनि का समय : दिव्यध्वनि के काल के विषय में बतलाते हुए आचार्य यतिवृषभ लिखते हैं कि यह दिव्यध्वनि प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल-तीनों सन्धयाओं में कुल मिलाकर नव मुहूर्त पर्यन्त खिरती है। गणधर,इन्द्र तथा चक्रवर्ती आदि के प्रश्नों के अनुरुप अर्थ के निरूपणार्थ यह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी ध्वनित होती है।' (झ) तीर्थंकर का समवसरण : जैन शब्दावली में प्रयुक्त समवसरणशब्द सेअभिप्राय उस पवित्र-स्थान से है जहां पर तीर्थंकर भगवान् विराजमान होते हैं और जहां बैठकर वेधर्म की देशना करते हैं |आदिपुराण में भगवान् ऋषभनाथ एवं पद्मचरित में भगवान् महावीर के समवसरण का सुन्दर चित्रण उपलब्ध होता है। (अ) समवसरण की संरचना : समवसरण की रचना कुबेर करता है किन्तु सूत्रधार तो इन्द्र ही होता है। यह बारह योजन तक फैला हुआ, देदीप्यमान एवं इन्द्रनील मणियों से बना हुआ होता है। इन्द्रनीलमणियों से निर्मित तथा चारों ओर से गोलाकार यह समवसरण ऐसा लगता था मानों त्रिलोक की लक्ष्मी के मुखदर्शन का मंगलमय दर्पण ही हो सुरेन्दनील निर्माणं समवृत्तं तदा बभौ / त्रिजगच्छ्रीमुखालोकमंगलादर्शविभ्रमम् / / समवसरण की भूमि पृथवी तल से एक हाथ ऊंची कल्पभूमि होती है। यह भूमि कमल के आकार वाली और इसमें गंधकुटी कर्णिका के समान होती है। शेष रचना कमल-दल के समान होती है। गंधकुटी के चारों और मानांगण नाम की भूमि होती 1. तिलोय० 4.603-604 2. आदिपुराण, 22.76-312 3. पउम० 2.50-61 4. सुत्रामा सूत्रधारो भून्निर्माणे यस्य कर्मठः / आदि० 22.76 5. द्विषड्योजनविस्तारम भूदास्थानमीशितुः / __हरिनीलमहारत्नघटितं विलसत्तलम् / / वही, 22.77 6 वही. 22.78