________________ 74 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 'षिधु' धातु शास्त्र और माङ्गल्य अर्थ में भी आती है। इस प्रकार जो शास्त्रों के शास्ता हुए हैं और जिन्होनें माङ्गल्यरूप का अनुभव किया है, वे सिद्ध हैं।' 1. कर्मबन्धमुक्त-सिद्ध : धवला टीकाकार सिद्ध पद की व्याख्या करते हुए बतलाते हैं कि 'जो पूर्णरूप से अपने स्वरूप में स्थित हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने अपने साध्य को सिद्ध कर लिया है और जिनके ज्ञानावरण आदि आठ कर्म नष्ट हो चुके हैं, वे ही सिद्ध हैं। यहां ही आगे और अधिक विस्तार करते हुए कहा गया है कि जिन्होंने नानाभेद रूप आठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शेखर स्वरूप हैं, दुःखों से रहित हैं, सुखरूपी सागर में निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं,आठ गुणों से युक्त हैं, निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने समस्त पर्यायों सहित सम्पूर्ण पदार्थों को जान लिया है, जो वजशिला निर्मित अभग्न प्रतिमा के समान अभेद्य आकार से युक्त हैं, जो पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुष के समान नहीं हैं क्योंकि पुरुष सम्पूर्ण इन्द्रियों के विषयों को भिन्न-भिन्न देशों में जानता है, परन्तु जो प्रत्येक देश में सब विषयों को जानते हैं, वे ही सिद्ध हैं। 2. भव्यात्मा-सिद्ध : आवश्यकनियुक्ति में सिद्ध भगवान का वर्णन करते हुए बतलाया गया है कि 'सबदुःखों को नाश करके,जन्म,जरा-मरणऔर कर्मबन्ध से मुक्त हुए तथा किसी भी प्रकार की बाधाओं से रहित, ऐसे शाश्वत सुख काअनुभव करने वाले भव्यात्मा ही सिद्ध कहलाते हैं। 1. विधूशास्त्र माङ्गल्ये चइति वचनात् सेधन्तिस्म-शासितारोऽभूवन् माङ्गल्यरूपतां चानुभवन्ति स्मेति सिद्धाः / वही 2. णमो सिद्धाणं-सिद्धाः निष्ठिताः कृतकृत्याः सिद्धसाध्याः नष्टाष्टकर्माणः / धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पृ०४७ 3. णिहय-विविहट्ठ-कम्मा-तिहुवण-सिर-सेहरा विहुवदुक्खा। सुहसायर-मज्झगया णिरंजणा णिच्च-अठ्ठगुणा / / अणवज्जा कय-कज्जा सव्वावयवेहि दिट्ठ-सव्वट्ठा। वज्ज-सिलत्थमग्गय-पडिमं वाभेज्ज-संठाणा।। मणुस-संठाणा विहु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा। सव्विंदियाण विसयं जमेग-देसे विजाणंति।। वही,गा०२६-२८, 4. निच्छिन्न सबदुक्खा जाइजरामरणबन्धविमुक्का। अव्वावाहं सुक्खं अणुहवंति सासयं सिद्धा।।आ०नि०,गा०६८८