________________ 75 सिद्ध परमेष्ठी 3. अनन्तचतुष्टयी सिद्ध : आचार्य कुन्दकुन्द भी कहते हैं कि जो अनन्तदर्शन तथा अनन्तज्ञान रूप हैं, अनन्तवीर्य तथा अनन्तसुख से युक्त हैं, अविनाशी सुख सम्पन्न हैं, शरीर रहित हैं और आठ कर्मों के बन्धन से मुक्त हो गए हैं, वे सिद्ध परमेष्ठी 4. निरुपम एवं शाश्वत सिद्ध : वे सिद्ध निरूपम हैं क्योंकि संसार में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जिससे उनकी उपमा की जा सके, अचल हैं, अक्षोभ हैं अर्थात् किसी भी प्रकार का उत्पात उत्पन्न होने पर उनमें विकार उत्पन्न नहीं होता,स्थिररूपसे निर्मापित हैं, संसारावस्था के अन्तिम क्षणरूप उपादान से सिद्ध-अवस्था को प्राप्त हुए हैं,अजंगमरूपसे सिद्ध स्थान में स्थित हैं, वे कायोत्सर्गअथवा पद्मासन मुद्रा में स्थित हैं क्योंकि मुक्तात्माओं के यही दो आसन निश्चित हैं तथा वे सिद्ध शाश्वत हैं। 5. अष्टमहागुणसम्पन्न सिद्ध : नियमसार में भी बतलाया गया है कि आठ कर्मों के बन्ध को जिन्होंने नष्ट कर दिया है, जो आठ महागुणों से युक्त हैं, परमतत्त्व स्वरूप हैं, लोक के अग्रभाग में स्थित हैं और नित्य हैं-ऐसे वे सिद्ध भगवान् होते हैं।' 6. लोकाग्रभागस्थित सिद्ध : आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती नेअपनेअनुपम ग्रन्थरत्नगोम्मटसार में उपर्युक्त मत का समर्थन करते हुए कहा है कि जो आठ कर्मों से रहित हैं, अनन्तसुख में निमग्न हैं, नवीन कर्मबन्ध के कारणभूत मिथ्यादर्शन आदि भावकर्मरूपी अञ्जन से रहित हैं, नित्य हैं,आठ गुणों से युक्त हैं, कृतकृत्य हैं और लोक के अग्रभाग में स्थित हैं-वे ही सिद्ध परमेष्ठी हैं।' आचार्य वट्टकेर का भी अभिमत है कि 'यह जीव अनादिकाल से आठ कर्मो से लिप्त है और जब उसके ये ही कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब वह सिद्धत्व 1. दंसण अणंतणाणं अणंतवीरिय अणंतसुक्खा य। सासय सुक्ख अदेहा मुक्का कम्मबंधेहिं।। बोधपाहुड, गा० 12 2. णिरुवममचलमखोहा निम्मिवियाजंगमेण रूवेण। सिद्धट्ठाणम्मि ठिया वोसरपडिमा धुवा सिद्धा।। वही,गा०१३ 3. णठ्ठठ्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा। . लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होति।। नियम०,गा०७२ 4. अट्ठविहकम्मवियला, सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा। अट्ठगुणा किदकिच्चा, लोयग्गणिवासिणो सिद्धा।। गो०जी०,गा०६८