________________ 68 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी (उ) जीवाजीव निरूपण : ___भगवान् महावीर ने जीवाजीव का उपदेश देते हुए बतलाया कि तत्त्व दो प्रकार के हैं-(१) जीव तत्त्व और (2) अजीव तत्त्व / जीव के भी दो भेद होते हैं-(१) सिद्ध (मुक्त) जीव, और (2) संसारी जीव / सिद्ध जीव अनन्त सुख से युक्त, अक्षय, मलरहित एवं सब प्रकार की बाधाओं से सर्वदा मुक्त होता है। संसारी जीव के त्रस एवं स्थावर ये दो भेद होते हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर जीव हैं। द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के प्राणी त्रस जीव कहलाते हैं।' __ आगे फिर बतलाया गया है कि जीव बड़ी मुश्किल से पांचों इन्द्रियों से निरोगतथा सुरूपहोता है। सभीसुन्दर वस्तुओं की प्राप्ति होने परभीअपुण्यशाली मूर्ख मनुष्य की लोभ एवं मोहवश धर्म में बुद्धि नहीं होती। वह कुधर्मरूपी कीड़ाओं में फंस जाता है और जिन-उपदिष्ट धर्म को वह प्राप्त नहीं करता। मनुष्यत्व प्राप्त करके जिसका चितधर्म में नहीं लगता, उस मनुष्य के करतल में आया हुआ अमृत भी मानों नष्ट हो जाता है। जिनेन्द्र भगवान् की देशना भाग्यवान् पुरुषों को ही प्राप्त होती है। गम्भीर, सर्वतोभद्र,सदासबके लिए कल्याणकारी,समस्तभावों के प्रकाशक, जिन भगवान् द्वारा निरूपित धर्म को जो सम्यग् प्रकार से अनुभव करते हैं अथवा जो उसे सम्यग् प्रकार से पहचानते हैं, वे आत्माएं धन्य हैं।' (ऊ) तीर्थकर उपदेश का फल : तीर्थंकर के उपदेश का फल बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते / कि जिन वचनरूपी औषधि विषय सुख को दूर करने वाली, अमृरूप, जरा और मरण की व्याधि को दूर करने वाली तथा सब दुःखों का क्षय करने वाली है। इस प्रकार से तीर्थकर के उपदेश से सभी जीवों का कल्याण होता है। उनके द्वारा बतलाए हुए मोक्ष मार्ग पर चलने से आत्मा परम विशुद्ध हो जाती है और उसके परिणामस्वरूप अन्त में मुक्ति लाभ करती है। यही सत्त्व का परमध्येय भी होता है। (e) तीर्थकर अवतार नहीं : जैनधर्म अवतारवाद में श्रद्धा नहीं रखता है। जैन किसी ऐसे ईश्वर को 1. दे०-पउम० 2.62-65 2. वही, 2.77-80 3. गंभीर सवओभदं सव्वभावविभावणं। धण्णा जिणाहितं मग्गं सम्मं वेदेति भावओ।। इसि० 6.33 4. जिणवयगमोसहमिणं विसयसुहविरेयणं अमिदभूयं / जर मरण वाहिहरणं खयकरणं सव्वदुक्खाणं / / दसणपाहुड़ गा० 17