________________ 66 जैन दर्शन में पञ्च क्रमेडी में ऋषभ आदि 24 तीर्थकर हुए हैं और उत्सर्पिणी काल के चौथे आरे में 24 तीर्थकर होंगे। ये सभी तीर्थकर धर्म के मूल स्तम्भ हैं। इन्होंने शश्वत सत्यों का समान रूप से निरूपण किया है, और वस्तु धर्म का वे आगे भी ऐसा ही प्रतिपादन करेंगे। जैसे स्वंय भगवान महावीर ने कहा भी है कि जो अर्हत हो चुके हैं, जो वर्तमान में हैं, और जो आगे भी होंगे, उन सब का यही निरूपण है कि किसी भी जीव की हिंसा मत करो। (अ) धर्म के मूल तत्त्वों में अभेद: धर्म के मूल तत्त्वों के निरूपण में एक तीर्थकर से दूसरे तीर्थकर का किञ्चित् मात्र भी भेद न कभी रहा है और न कभी रहेगा परन्तु प्रत्येक तीर्थकर अपने-अपने समय में देश, काल,तत्कालीन मानवकीशक्ति, बुद्धि एवंसहिष्णुता आदि को ध्यान में रखकर तदनुरूप धर्म दर्शन का प्रवचन करते हैं।' देश, काल के प्रभाव से जब तीर्थ में नाना प्रकार की विकृतियां उत्पन्न हो जाती हैं, परस्पर में अनेक भ्रान्तियां पनपने लगती हैं, उस समय दूसरे तीर्थकर का जन्म होता है। आचार्य रविषेण ने कहा है कि 'जब उत्तम आधार का विघात हो जाता हैं। मिथ्याधर्मियों के पास धन की वृद्धि हो जाती है, सत्यधर्म के प्रति निरादर कीभावना उत्पन्न होने लगती है,तब तीर्थकरभगवान् उत्पन्न होते है। वे विशुद्ध रूप से नवीन तीर्थ की स्थापना करते हैं, इसी से वे तीर्थकर कहलाते हैं धर्म के प्राणभूत सिद्धान्त ज्यों के त्यों उपदिष्ट किए / जाते हैं / बाह्य क्रियाओं एवं आचार, व्यवहार आदि में ही किञ्चित् अन्तर आता है। (आ) महाव्रतों की देशना : सभी तीर्थंकर महाव्रतों की देशना करते हैं। ऐसा माना जाता है कि प्रागऐतिहासिक काल में भगवान् ऋषम ने पांच महाव्रतों का उपदेश दिया था किन्तु बाद के काल में पार्श्वनाथ पर्यन्त तीर्थकरों ने चातुर्यामधर्म का उपदेश 1. अनागतकाल के चौबीस तीर्थर - महापद्य-सुरदेव-सुपार्श्व-स्वयंप्रम-सर्वात्मभूत-देवपुत्रकुलपुत्र-उदंक-प्रौष्ठिल-जयकीर्ति-मुनिसुव्रत-अर-निष्पापनिष्कणंय-विपुल निर्मल-चित्रगुप्त-स्वयंभू-अनिर्वतकजय-विमल-देवपाल-अनन्तवीर्यश्चेति भविष्यत्कालसम्बन्धि चतुर्विशंति तीर्थरेभ्यो नमो नमः / वही, 2. दे० आयारो, 4.1.1 3. दे०-तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-१, पृ०५ 4. आचाराणां विघातेन कुदृष्टीनां च संपदा।। धर्मग्लानिपरिप्राप्तमुच्छयन्ते जिनोत्तमाः / पद्मपुराण, 5.206 5. दे०-तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग-१,पृ०५ 6. भग०, 20.66