________________ * 58 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी 7. उनके ऊपर आकशगत छत्र होता है। 8. उनके दोनों ओर श्वेत चंवर डुलते हैं। 6. उनके आकाश जैसा स्वच्छ, स्फटिक मणि से बना हुआ पादपीठ सहित सिंहासन होता है। 10. उनके आगे-आगे आकाश में हजारों लघु पताकाओं से सुशोभित इन्द्रध्वज चलता है। 11. जहां-जहां भगवान् ठहरते हैं अथवा बैठते हैं, वहां-वहां उसी समय पत्र, पुष्प और पल्लव से सुगन्धित, छत्र, ध्वजा, घण्टा और पताका सहित अशोक वृक्ष उत्पन्न हो जाता है। 12. उनके मस्तक के कुछ पीछे दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला भामण्डल होता है। 13. उनके पांवों के नीचे का भूभाग समतल और रमणीय होता है। 14. कण्टक अधोमुख हो जाते हैं। 15. ऋतुएं अनुकूल और सुखदायी हो जाती हैं। 16. शीतल, सुन्दर और सुगन्धित वायुयोजन' प्रमाणभूमि का चारों ओर से प्रमार्जन करती है। 17. छोटी फुहार वाली वर्षा द्वारा रज और रेणु का शमन हो जाता है। 18. पंचवर्ण वाला सुन्दर पुष्प-समुदाय प्रकट हो जाता है। 16. अमनोज्ञ शब्द स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का अभाव हो जाता हैं। 20. मनोझ शब्द, स्पर्श, रूप, रस, और गन्ध का प्रदुर्भाव हो जाता है। 21. प्रवचनकाल में उनका स्वर हृदयंगम और योजनगामी होता है। 22. भगवान् अर्धभागधी भाषा में धर्म का व्याख्यान करते हैं। 23. वह भाष्यमाण अर्धमागधी भाषा सुनने वाले आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद आदि समस्त प्राणियों की भाषा में परिवर्तित हो जाती है। 1. एक योजन का प्रमाण चार कोस होता है। दे०-तिलोय० 1.116