________________ 46 'जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी सभी अरहन्त अन्तरंग में समान भूमिका पर होते हैं। सभी का ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य समान ही होता है। सब के सब अरहन्त क्षीणमोह गुणस्थान पार करने पर सयोगकेवली गुणस्थान में पूर्ण वीतरागी होते हैं। कोई भीन्यूनाधिक नहीं होता क्योंकि क्षायिकभाव में कोई तरतमता नहीं होती है। अरहन्त पद पर पहुंचे हुए व्यक्ति जब चतुर्विध संघ की स्थापना करते हैं और धर्म-देशना करते हैं तब वे ही तीर्थंकर कहे जाते हैं। सभी तीर्थंकर केवली और अरहन्त होते हैं परन्तु सभी केवली अरहन्त तीर्थंकर हों, सो ऐसा नहीं है। तीर्थंकर एक समय में एक ही होता है जबकि केवली एक अरहन्त तीर्थंकर के समय में अनेक हो सकते हैं। तीर्थंकर पार्श्वनाथ' के समय में 1000 तथा महावीर के समय में 700 केवली अरहन्त थे। जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष में वर्णित हैं कि वे अरहन्त जिनके विशेष पुण्य के कारण कल्याणक महोत्सवमनाए जाते हैं, तीर्थंकर कहलाते हैं। शेष सामान्य अरहन्त होते हैं। केवलज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञत्व से युक्त होने के कारण उन्हें ही केवली कहते हैं। आचार्य हरिभद्रसूरितीर्थंकर और सामान्य केवली के आदर्शों के आधार पर उनमें अन्तर बतलाते हुए कहते हैं कि 'जो करूणा से युक्त हैं, जो परार्थ को ही अपने जीवन का लक्ष्य बनाते हैं, सत्त्वों के कल्याण की कामना ही जिसका एकमात्र कर्तव्य है और जो अपनी आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त करने के पश्चात् ही सत्त्वहित के लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करता है,वह तीर्थंकर कहलाता है परन्तु जो साधक आत्म कल्याण को ही अपना लक्ष्य बनाता है और इसी आधार पर साधना करते हुए आध्यात्मिक परिपूर्णता हासिल करता है, वह सामान्य केवली कहा जाता है / जैनों की पारिभाषिक शब्दावली में उसे मुण्डकेवली भी कहते हैं / उपाध्याय अमरमुनि तीर्थंकर और अरहन्त में भेद स्पष्ट करते हुए बड़े ही सरल शब्दों में लिखते हैं कि अनेक लोकोपकारी सिद्धियों के स्वामी तीर्थंकर oc Ww 1. दे० समवाओ, प्रकीर्णक सूत्र 62 2. वही, सूत्र 38 3. दे० जैनेन्द्र सिद्धान्तकोष, भाग-१, पृ०१४०, भाग-२, पृ०१५७ 4. करुणादिगुणोपेतः, परार्थव्यसनी सदा। तथैव चेष्टते धीमान्, वर्धमान महोदयः / / तत्तत्कल्याणभोगेन कुर्वन्सत्त्वार्थमेव सः / तीर्थकृत्वमवाप्नोति, परं सत्त्वार्थसाधनम् / / योगबिन्दु, 287-88 संविग्नो भवनिर्वेदादात्मनि सरणं तु यः / आत्मार्थं सम्प्रवृत्तोऽसौ सदा स्यान्मुण्डकेवली / / वही, 286