________________ 44 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी साक्षात्कार कर लेते हैं।' जैन कहते हैं कि आत्मा की ऐसी अवस्था अवश्य होती है, जहां दोषों और आवरणों की हानि का चरम प्रकर्ष दृष्टिगोचर होता है। जिस प्रकार सोने को आग में तपाने से उसमें मिले हुए मैल के जल जाने पर सोना शुद्ध हो जाता है और उसके स्वाभाविक गुण निखर उठते हैं उसी प्रकार ध्यानाग्नि द्वारा कर्ममल के जल जाने पर आत्मा भी विशुद्ध एवं विशद हो जाती है और अपने स्वाभाविक गुणों से देदीप्यमान हो उठती है। आचार्य मल्लिषेण लिखते हैं कि 'जो पदार्थ एक देश से नष्ट हो जाते हैं, उनका पूर्ण रूप से नाश भी उसी प्रकार हो जाता है जिस प्रकार मेघों के पटलों का आंशिक विनाश होने से उनका सर्वथा विनाश हो जाता है। इसी प्रकार राग, द्वेष, मोह आदि का आंशिक विनाश हो जाने पर उनका सर्वथा विनाश हो जाता है। इस तरह आत्मा के समस्त दोष एवं आवरणों के नष्ट हो जाने पर वह अपने स्वाभाविक गुणों से प्रकाशित हो जाती है, यही उसकी आत्मज्ञत्व, सर्वज्ञत्व एवं कैवल्य की अवस्था है। इस तरह से अरहन्त सर्वज्ञ के अस्तित्व की पूर्ण सिद्धि होती है। आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि 'जिसके वचन युक्ति एवं शास्त्र के विरुद्ध न हों, उसे निर्दोष मानने में किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती अर्थात् निर्दोष वक्ता और शास्त्रज्ञाता ही सर्वज्ञ है। आचार्य प्रभाचन्द्र का भी यही अभिमत है कि कोई आत्मा सम्पूर्ण पदार्थों का साक्षात्कार करने वाला अवश्य है क्योंकि उसका स्वभाव उनको ग्रहण करने का है और उसमें प्रतिबन्ध के कारण नष्ट हो गए हैं। जिस प्रकार चक्षु का स्वभाव रूप को साक्षात्कार करने का है और रूप के साक्षात्कार करने में प्रतिबन्धक कारणों के अभाव में चक्षु रूप का साक्षात्कार करती है उसी प्रकार प्रतिबन्धक कारणों के अभाव में आत्मा भी समस्त पदार्थों का साक्षात्कार करती है। 1. सूक्ष्मान्तरित-दूरार्थाः प्रत्यक्षा : कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ-संस्थितिः।। आप्त-मीमांसा, का०५ 2. दोषाऽवरणयोर्हानिनिःशेषऽस्त्यतिशायनात् / क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्यो बहिरन्तर्मलक्ष्यः / / वही, का० 4 3. देशतो नाशिनो भावा दृष्टा निखिलनश्वराः / मेघपङ्क्त्यादयो यद्वत् एवं रागादयो मताः / / स्याद्वादमंजरी, पृ०७६ 4. सः त्वमेवाऽसि निर्दोषो युक्ति-शास्त्राऽविरोधवाक् / आप्त-मीमांसा, का०६ 5. सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्ययत्वात्, यद् यद् ग्रहणस्वभावत्वे सति प्रक्षीणप्रतिबन्धप्रत्यय तत् तत् साक्षात्कारि यथा अपगततिमिरादिप्रतिबन्धं लोचनविज्ञानं रूपसाक्षात्कारि। प्रमेयकमल मार्तण्ड, पृ० 255.