________________ 48 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी ही 'तीर्थ' है जिसमें स्नान किए बिना कोई भी जीव संसार के दुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। सीधे अर्थों में यों कहा जा सकता है कि तीर्थ का अर्थ पुल या सेतु है। कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल से निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है। इस प्रकार के 'तीर्थ के करने वाले को ही 'तीर्थंकर' कहते हैं। तीर्थ शब्द से अभिप्राय साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका रूप चतुर्विध संघ से भी लिया जाता है। उक्त चतुर्विध संघ के व्यवस्थापक तीर्थंकर ही होते हैं। इन चारों के सामूहिक प्रयास से ही संसार महासागर पार किया जा सकता है। 2. तीर्थकर परम्पराः जैन परम्परानुसार कालचक्र दो भागों-अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में विभक्त है। प्रत्येक में छह आरे होते हैं। अभी अवसर्पिणी काल चल रहा है। इसके पूर्व उत्सर्पिणी काल था अवसर्पिणी के समाप्त होने पर पुनः उत्सर्पिणी कालचक्र शुरू होगा। इस तरह से कालचक्र चलता रहता है।" अवसर्पिणी काल में मनुष्य एवं तिर्यञ्चों की आयु, शरीर की ऊंचाई और विभूति इत्यादि सभीभाव घटते हैं तथा उत्सर्पिणी काल मे बढ़ते रहते हैं: किन्तु दोनों ही कालों में तीर्थंकरों का जन्म होता है। प्रत्येक काल में इनकी संख्या 24 ही मानी गई है। प्रस्तुत अवसर्पिणी काल में जो 24 तीर्थंकर हो चुके हैं वे इस प्रकार हैं। 1. अण्णु जि तित्थु म जाहि जिय अण्णु जि गुरुउम सेवि। अण्णु जि देउ म चिंति तुहुं अप्पा विमलु मुएवि।। परमात्म० 1.65 तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, खण्ड-१, पृ०४ 3. तीर्थंकरः तीर्थंकर / जिनसहस्रनाम स्वोपज्ञवृति 4.47 4. तिथ्यं पुण चाउवण्णे समणसंघे,तं जहा-समणा, समणीओ, सावया सावियाओ / भग० 20.74 5. धम्मतित्थयरे जिणे ; उ० 23.1,5 6. छह आरे-सुषमसुषमा, सुषमा, सुषमदुष्षमा, दुष्षमसुषमा, दुषमा और अतिदुषमा / ये अवसर्पिणी काल के छह आरे हैं। उत्सर्पिणी काल में इनका क्रम विपरीत होता है। दे०-तिलोय०४.३१६ -16 7. दे०-(बलभद्र) जैन धर्म का प्राचीन इतिहास, भा' .-1, पृ०२७ 8. णरतिरियाणं आऊ उच्छेहविभूदिप्हुदियं सव्वं। अव्वसप्पिणिए हायदि उस्सवप्पियासु वड्ढेदि।। तिलोय० 4.314 6. भग० 20.67