________________ अरहन्त परमेष्ठी होते हैं, जबकि दूसरे मुक्त होने वाले आत्मा ऐसे नहीं होते अर्थात् न तो वे तीर्थंकर जैसे महान धर्म-प्रचारक ही होते हैं और न ही वे इतनी अलौकिक योग-सिद्धियों के स्वामी ही होते हैं / साधारण मुक्त जीव अपना आत्मिक विकास का लक्ष्य अवश्य प्राप्त कर लेते हैं, परन्तु जनता पर अपना चिरस्थायी एवं अक्षुण्ण आध्यात्मिक प्रभुत्व नहीं जमा पाते / यही एक विशेषता है जो तीर्थंकर और अन्य मुक्त आत्माओं में भेद करती हैं।' . इस प्रकार अरहन्त और तीर्थंकर में अन्तर केवल इतना ही है कि अरहन्त स्वयं अपनी ही मुक्ति की कामना करते हैं और तीर्थंकर स्वयं संसार-सागर से पार होने के साथ-साथ दूसरों को भी पार लगाते हैं परन्तु आध्यात्मिक विकास की पूर्णता की दृष्टि से वे एक समान ही होते हैं। 1. तीर्थङ्कर : तीर्थकर दो शब्दों के मेल से बना है-तीर्थ और कर / तीर्थ शब्द 'तृ' धातु से 'थक् प्रत्यय के लगाए जाने पर निष्पन्न होता है। इस शब्द की व्युत्पति व्याकरण की दृष्टि से इस प्रकार है-'तीर्यते अनेन इति तीर्थम्' अर्थात जिसके द्वारा अथवा जिसके आधार से तरा या तैरा जाए, वह 'तीर्थ है। तैरने की क्रिया दो प्रकार से होती है। एक तो जलाशय में भरे हुए पानी को पार करने से और दूसरी संसाररूपीसागर को तैरने से। इन दोनों क्रियाओं में से प्रथम क्रिया जिस स्थान से होती है उसे लौकिक 'तीर्थ' कहते हैं जबकि द्वितीया क्रिया जिसके आश्रय से अथवा जिस स्थान से होती है, उसेलोकोत्तर 'तीर्थ' कहते हैं। लोक व्यवहार में 'तीर्थ' शब्द पवित्र स्थान, सिद्ध क्षेत्र अथवा नदी या सरोवर के तटवर्ती घाट अथवा समुद्र में ठहरने के स्थान के अर्थ में प्रयुक्त होता है, परन्तु वर्तमान सन्दर्भ में 'तीर्थ' का सम्बन्ध लोकोतर तीर्थ से ही है। जैन शास्त्रों में तीर्थ शब्द का अर्थ इस प्रकार मिलता है जो इस संसार समुद्र से पार करे, वह 'तीर्थ' है अथवा यह संसार रूपी समुद्र, जिस निमित से तैरा जाए, वह तीर्थ है। संसारो द्वादशाङ्गश्रुत का आश्रय लेकरभवसागर से पार होते हैं / अतएव वहद्वादशांगश्रुत ही 'तीर्थ' है। आचार्य धनञ्जय का भी यही अभिमत है। श्री योगीन्दु के अनुसार तो आत्मा - - 1. दे० जैनत्व की झांकी, पृ०५३ 2. संसाराब्धे परस्य तरणे तीर्थमिष्यते / आदि० 4.8 3. तीर्यते संसारसागरो येन तत्तीर्थं द्वादशांगशास्त्रं तत्करोति / जिनसहस्रनाम, स्वोपज्ञवृत्ति, 4.37 4. तीर्थं द्वादशाड्गशास्त्रम् / धनञ्जय नाममाला, श्लोक 116 भाष्य