________________ 50 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी तीर्थंकर पद की प्राप्ति के लिए पूर्व जन्मों में विशिष्ट साधना करनी होती है | उस साधना से तीर्थंकर नामकर्म का आस्रव होता है। तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के सोलह कारण बतलाए गए हैं जो सोलहकारणभावनाओं के नाम से प्रसिद्ध हैं / वे कारण भावनाएं इस प्रकार हैं। 1. दर्शनविशुद्धि: वीतरागकथित तत्त्वों में निर्मल और दृढ़ रुचि दर्शनविशुद्धि है। 2. विनयसम्पन्नता : ज्ञानादि मोक्षमार्ग और उसके साधनों के प्रति समुचित आदरभाव विनयसम्पन्नता कहलाती है। 3. शीलवतानतिचार : अहिंसा, सत्य आदि मूलव्रत तथा उनके पालन में उपयोगीअभिग्रह आदि दूसरे नियम या शील के पालन में प्रमाद न करना शीलवतानतिचार कहलाता है। 4. अभीक्षणज्ञानोपयोग : तत्त्वविषयक ज्ञान में सदा जागृत रहना अभीक्षणज्ञानोपयोग है। 5. अभीक्षण-संवेग : सांसारिक भोगों से जो वास्तव में सुख के स्थान पर दुःख के ही साधन बनते हैं, डरते रहना अर्थात् कभी भी लालच में न पड़ना अभीक्षण-संवेग है। 6. यथाशक्ति त्याग: अपनीअल्पतमशक्ति को भी छिपाए बिना विवेकपूर्वकाहारदान,अभयदान और ज्ञानदान आदि करते रहना यथाशक्ति त्याग कहा जाता है! 7. यथाशक्ति तप: ऐसे ही शक्ति को छिपाए बिना विवेकपूर्वक हर तरह की सहनशीलता का अभ्यास यथाशक्ति तप कहलाता है। 1. तत्स्वभाव्यादेव प्रकाशयति भास्करो यथालोकम् / तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थंकर एवम् / / तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, सम्बन्ध का० 10 2. दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नता शीलव्रतेष्वनतिचाराऽभीक्ष्णंज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तिस्त्यागतपसी सङ्घसाधुसमाधिवैयावृत्त्यकरणमर्हदाचार्यबहुश्रुतप्रवचनभक्ति रावश्यकपरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्सलत्वमिति तीर्थंकरत्वस्य / त०सू०६.२३