________________ 42 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी उपलब्ध होते ही सम्पूर्ण ज्ञानावरणों का क्षय हो जाता है और इससे लोक और अलोक प्रकाशित हो जाते हैं। ऐसा यह एकमात्र ज्ञान केवलज्ञान है। गोम्मटसार में इसे और अधिक स्पष्ट करते हुए बतलाया गया है कि केवलज्ञान सम्पूर्ण, समग्र, केवल,प्रतिपक्षरहित,सर्वपदार्थगत और लोकालोक में अन्धकाररहित होता है संपुण्णं तु समग्गं केवलसमवत्तं सव्वभावगयं। लोयालोयवितिमिरं, केवलणाणं मुणेदव्वं / / 1. सम्पूर्णज्ञान : केवलज्ञान यह केवलज्ञान समस्त पदार्थों को विषय करने वाला और लोकालोक के विषय में आवरणरिहत है तथा जीवद्रव्य की ज्ञानशक्ति के जितने अंश हैं वे यहां पर पूर्णरूप से व्यक्त हो जाते हैं, इसी से इसे सम्पूर्ण ज्ञान कहा गया 2. सम्रगज्ञान : केवलज्ञान मोहनीय और अन्तराय कर्म का सर्वथा क्षय हो जाने के कारण वह अप्रतिहत शक्ति वाला और निश्चल है। इसी से इसे समग्रज्ञान कहते हैं। 3. केवल : केवलज्ञान - केवलज्ञान इन्द्रियों की सहायता की अपेक्षा नहीं रखता इसलिए वह केवल है। 4. अप्रतिपक्ष : केवलज्ञान केवलज्ञान चारों घातिया कर्मों के सर्वथा क्षय होने से क्रम, करण और व्यवधान से रहित है, फलतः युगपत् और समस्त पदार्थों के ग्रहण करने में उसका कोई बाधक नहीं है / अतः उसको अप्रतिपक्ष (असपत्न) कहा गया है। __भगवती आराधना में भी इस विषय पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। यहां बतलाया गया है कि चारों घातिया कर्मों के क्षय हो जाने पर विशद केवलज्ञानी और विशुद्ध केवलज्ञानी उत्पन्न होता है। वह केवलज्ञानी सब द्रव्यों को त्रिकालगोचर सब पर्यायों को जानता है। इसीलिए इसको सर्वपर्यायनिबद्ध कहा है। केवलज्ञानी केवल एक है, तथा शुद्ध, अव्याबाध, सन्देहरहित, उत्तम, असंकुचित, सकल, अनन्त, अविनाशी एवं विचित्र ज्ञान 1. लोकालोकप्रकाशात्मा केवलज्ञानमुत्तमम् / . केवलं जायते यस्मादशेषावरणक्षयात् / / सिद्धान्तसारसंग्रह, 2.166 2. गो०जी०, गा० 460