________________ .. 16 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी शिष्य आनन्द को सम्बोधित करते हुए पूछते हैं कि क्या आनन्द तुमने सुना है कि 'वैशाली के लोग अरहन्तों में अधिक सद्भावना रखते हैं, उनका सम्मान करते हैं, संरक्षण करते हैं। उनका पूरा-पूरा ध्यान रखते हैं जिससे उनकी साधना में कोई बाधा न हो तथा आए हुए अरहन्त निर्भय होकर एकान्त विहार करें।' आनन्द भगवान् बुद्ध के इस वचन का अनुमोदन करता है और कहता है कि हे भगवन् ! जैसा आप कह रहे हैं वैसा ही मैंने भी सुना है / तब भगवान् बुद्ध कहते हैं, हे आनन्द, जब तक वज्जीवासी ऐसा करेंगे, पूज्यनों के प्रति जब तक उनमें ऐसी भावना रहेगी, जब तक वे उनका वैसा ही सम्मान आदि करते रहेंगे, तब तक उन वैशालीवासियों के ऐश्वर्य आदि का अभ्युदय होता रहेगा उनकी कोई हानि नहीं होगी, वे अजेय ही रहेंगे / उपर्युक्त सन्दर्भ से इतना तो स्वतः सिद्ध हो जाता है कि जैनों में अरहन्तों का क्या स्थान है? अरहन्त जैनों के लिए ही नहीं, प्रत्युत तीनों लोकों के लिए ही पूज्य हैं / इन वीतरागी पुरुषों के अतिरिक्त जैन अन्य महापुरुषों को भी स्वीकार करते हैं और उन्हें यथोचित सम्मान भी देते हैं / ऐसे महापुरुष जैनों केअनुसार 63 होते हैं जिन्हें प्राणियों का मंगल करने वाला कहा गया है। (1) त्रिषष्टि महापुरुष : सर्वप्रथम इन महापुरुषों में --- चौबीस तीर्थकर आते हैं जिन्हें अरहन्त केवली व सर्व भी कहा जाता है / बारह चक्रवर्ती - भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुन्थनाथ, अरनाथ, सुभौम, पदम, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त, नौ बलदेव -- अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दन, पद्म 1. किन्ति ते, आनन्द, सुतं-वज्जीनं अरहन्तेसुम्मिकारक्खावरण-गुत्ति सुसंविहिता - किन्ति अनागता च अरहन्तो विजितं आगच्छेय्युं आगता च अरहन्तो विजिते फासुं विहरेय्युति / यावकीञ्च,आनन्द, वज्जीनं अरहन्तेसुधम्मिकारक्खावरणगुत्ति सुसंविहिता भविस्सति, किन्ति अनागता च अरहन्तो-पें०-विहरेय्युति, बुद्धि येव आनन्द, वज्जीनं पाटिका नो परिहानीति / दी०नि०, भाग-२, महापरिनिव्वाणसुत्त, 3.1.4 2. भुवनत्रयपूज्योऽहं जिनेन्द्र तव दर्शनात् / ज्ञान० पू० अद्याष्टकस्तोत्रम्, श्लोक 10 3. त्रैकाल्ये प्रथितास्त्रिषष्टिपुरुषाः कुर्वन्तु ते मङ्गलम् / - वही, मड्गलाष्टकम्, श्लोक 3 4 भरहो य चक्कवट्टी समईओ संपयं तुम सगरो। अवसेसा चक्कहा, होहिन्ति अणागए काले।। मघव सणंकुमारो, सन्ती कुन्थु अरो सुभूमो य। पउम हरिसेण नामो जयसेणो बम्भदत्तो य।।- पउम० 5. 152-53