________________ जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी प्रवृति के कारणजीव के अन्तरंग परिणामों में प्रतिक्षण होने वाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहा गया है।' .. गुणस्थान रूप चौदह सौपानों का क्रम निर्धारित करने में कर्मबन्ध के जो पांच मूल हेतु--मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग हैं इनका क्रमिक उपशम, क्षय,क्षयोपशम और केवल क्षय ही गुणस्थानों का आधार है। आगम ग्रन्थों में ये गुणस्थान चौदह प्रकार के बतलाये गए हैं। इनका यहां अध्ययन करना आवश्यक समझता हूं। 1. मिथ्या दृष्टि गुणस्थानः मोहनीय कर्म के एक भेद मिथ्यात्व के उदय से जोअपने हित-अहित का विचार नहीं कर सकते, वेजीव मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं / मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले मिथ्या परिणामों का अनुभव करने वाला जीव विपरीत श्रद्धान वाला हो जाता है। उसको यथार्थधर्म उसी प्रकार अच्छा नही लगता जिस प्रकार पित्तज्वर से युक्त प्राणी को मीठा रस भी रुचिकार नहीं होता / संसार के अधिकतर सत्त्व इसी श्रेणी में आते हैं। 2. सासादन गुणस्थानः __ अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ में से किसी एक के भी उदय में आने से सम्यक्त्व की विराधना होने पर सम्यदर्शन गुण की जो अव्यक्त अतत्त्व श्रद्धानरूप परिणति होती है, उसको सासन या सासादन गुणस्थान कहते हैं / इस गुणस्थान को दृष्टान्त द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सम्यक्त्वरूपी रत्नपर्वत के शिखर से गिरकर जो जीव मिथ्यात्वरूपी भूमि के सम्मुख हो चुका है, अर्थात् जिसने सम्यक्त्व की विराधना कर दी है, किन्तु 1. दे० (पं० कैलाशचन्द्र), जैनधर्म, पृ. 236-37 2. मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः / त. सू. 8.1 3. कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीवट्ठाणा पण्णता, तं जहा-मिच्छदिट्ठी, सासायणसम्मदिट्ठि,सम्मामिच्छदिट्ठि,अविरयसम्मादिट्ठि,विरयाविरए,पमत्तसंजए, अप्पमत्तसंजए, नियट्ठिवायरे, अनियट्ठिवायरे, सुहमसंपराए. उवसमए वा खवए वा, उवसंतमोहे, खीणमोहे, सजोगी केवली, अजोगी केवली / समवाओ, 14.5 मिच्छतं वेदंतो, जीवो विवरीय दंसणो होदि। ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो।। गो.जी., गा. 17 आदिमसम्मत्तद्धा, समयादो छावलित्ति वा सेसे। अणअण्णदरुदयादो, णासियसम्मोत्ति सासणक्खो सो।। गो०जी०, गा० 16