________________ 28 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी इस प्रकार अरहन्त के जो पाठान्तरं मिलते हैं, उनमें मात्र निर्वचन के अन्तर को छोड़कर, मूलगुणों एवं अर्थ की दृष्टि से कोई विशेष भिन्नता नहीं है। सभी पाठ अरहन्त के समानार्थक ही हैं। इसी से आचार्य कुन्दकुन्द अरहन्त के विषय में अपना विशेष मन्तव्य प्रकट करते हुए लिखते हैं कि 'जिन्होंने जरा, व्याधि जन्म-मरण, चतुर्गति-गमन,' पुण्य-पाप, अठारह दोषों तथा घातिया कर्मो को नष्ट कर दिया है और जो ज्ञानमय हो गए हैं, वे ही अरहन्त है'।२ अरहन्त दिव्य औदारिक शरीर केधारी होते हैं | घातिया कर्म-मल से रहित होने के कारण उनकी आत्मा महान् एवं पवित्र होती है। अनन्त चतुष्टय रूपी लक्ष्मी भी उनको प्राप्त हो जाती है। प्रतिष्ठातिलक में आचार्य नेभिचन्द्र कहते हैं कि हेअर्हन,आप मोहरूपी शत्रु को नष्ट करने वाले नयरूपी बाणों को धारण करते हैं तथा अनेकान्त को प्रकाशित करने वाले निर्बाध प्रमाण रूप विशाल धनुष के धारक हैं / युक्ति एवं शास्त्र के अविरुद्ध वचन होने के कारण आप ही हमारे आराध्य देव हैं / जो सर्वथा एकान्तवादी हैं, वे हमारे आराध्य देव नहीं हो सकते क्योंकि उनका उपदेश प्रत्यक्ष एवं अनुमान से बाधित है। हे अर्हन्, आप ऐसी आत्मा को धारण करते हैं, जो स्वर्णाभूषण (निष्क) की तरह प्रकाशमान है, बाह्य और अन्तःमल से रहित है तथा जो समस्त विश्व के पदार्था को एक साथ निरन्तर जानता है। हे अर्हन्. आप मनुष्य, सुर एवं असुर सभी को मोक्ष मार्ग का उपदेश देते हैं,आप से बढ़कर अन्य कोई ब्रह्म अथवा असुर को जीतने वाला बलवान् देवता नहीं . 1. चार गति हैं-१. नरकगति, २.तिर्यञ्चगति, 3. मनुष्यगति और 4. देवगति / त. सा., 2.38 2. जरवाहिजम्ममरणं चउगइगमणं च पुण्णपावं च। हंतूण दोसकम्मे हुउ णाणमयं च अरहंतो / / बोधपाहुड़, गा. 30 3. औदारिक, वैकिय, आहारक, तेजस और कार्मण--ये पांच प्रकार के शरीर होते हैं। विस्तार के लिए देखिए--त.सू. 2.37-46 4. दिव्यौदारिकदेहस्थः धौतघातिचतुष्टयः / ज्ञानदृग्वीर्यसौख्यादयः सोऽर्हन् धर्मोपदेशकः / / पंचाध्यायी, 2.60 अर्हन् विभर्षिमोहारिविध्वंसिनयसायकान्। , अनेकान्तद्योतिनिधिप्रमाणोदारधनुः च / / ततस्त्वमेव देवा से युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् / दृष्टेष्टबाधितेष्टाः स्युः सर्वथैकान्तवादिनः / / अर्हन्निष्कमिवात्मानं बहिरन्तर्मलक्षयम् / विश्वरूपं च विश्वार्थे वेदितं लभसे सदा।। अर्हन्निदं च दयसे विश्वमभ्यंतराश्रयम्। नृसुरासुरसंघातं मोक्षमार्गोपदेशनात् / / ब्रह्मासुरजयीवान्यो देव रुद्रस्त्वदस्ति न / / प्रतिष्ठातिलक, 374-78