________________ अरहन्त परमेष्ठी अरहन्त परमेष्ठीजगत्पूज्य हैं,अतः 'अरहन्त' कहलाते है। ये ही कर्मरूपी शत्रुओं को जीतने वाले होने से 'जिन' कहलाते हैं। ये अरहन्त ही भुवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी' इन समस्त देवों के स्वामी हैं / अतः आप ही 'महादेव' हैं। प्राणिमात्र को सुख देने वाले होने से 'शंकर' और ज्ञान की अपेक्षा से समस्त पदार्थों में व्यापक होने से आप ही 'विष्णु' कहलाते हैं और ब्रह्म-स्वरूप के परम ज्ञापक होने से आप ही 'ब्रह्म' भी हैं | समस्त जगत् के दुःखों को हरने वाले होने से भगवान् 'हरि भी आप ही हैं। ऐसे ये अरहन्त भगवान् अनेक नामों वाले हैं, फिर भी अपने देवत्व लक्षण की अपेक्षा से एक ही हैं, अनेक नहीं, क्योंकि वह अनन्त गुणात्मक एक द्रव्य ही साधक युक्तियों से सभी में समान रूप से सिद्ध है। इस प्रकार सम्पूर्ण जैन वाङ्मय में अरहन्त शब्द पूज्य एवं योग्य व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हुआ है / अरहन्त के जो गुण पालि साहित्य में बतलाए गए हैं, वे बहुत अंशों में जैन अरहन्त के गुणों से समानता रखते हैं फिर भी जैन और बौद्धों के अरहन्त की मान्यता में काफी अन्तर है। जैनों का अरहन्त पूर्ण ज्ञानी, तीनों लोकों का ज्ञाता, मोक्ष मार्ग का दर्शक और धर्म का संस्थापक है। स्वरूपतः जैनधर्म का अरहन्त महायानी बौद्धों के सम्यक-सम्बुद्ध के समकक्ष तो है ही साथ ही अपनी कुछ अतिरिक्त विशेषताओं की अपेक्षा वह हीनयानी बौद्धों के अर्हत् से कहीं अधिक श्रेष्ठ एवं महान् भी है। बौद्धों का अर्हत् स्वयं सम्यग् सम्बुद्ध से कई गुणों में हीन है, कारण कि यहां अर्हत् कालक्ष्य अपने को निर्वाण लाभ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है जबकि सम्यक् सम्बुद्ध और जैनों के तीर्थड्कर अरहन्त अपने मोक्ष-लाभ के साथ-साथ जगत् के समस्त प्राणियों को अपने उपदेश द्वारा मोक्ष-मार्ग की प्राप्ति के लिए प्रेरित करते हैं। यही दोनों के अरहन्त के स्वरूप में एक महान् अन्तर है। (ख) आध्यात्मिक विकास और अर्हत्पद : अध्ययन की दृष्टि से जीव के आध्यात्मिक विकास को चौदह सोपानों में बांटा गया है, जिन्हें गुणस्थान कहते हैं। मोह तथा मन, वचन, काय की 1. देवलोक की विस्तृत जानकारी के लिए देखिए, त. सू. अध्याय 4 2. अर्हन्निति जगत्पूज्यो जिनः कर्मारिशातनात्। महादेवोऽधिदेवत्वाच्छाङ्करोऽपि सुखावहात्।। विष्णुर्ज्ञानेन सर्वार्थविस्तृतत्वात्कथञ्चन। ब्रह्म ब्रह्मस्वरूपत्वाद्धरिर्दुः खापनोदनात्।। इत्याधनेकनामापि नानेकोऽस्ति स्वलक्षणात्। यतोऽनन्तगुणात्मैकद्रव्यं स्यात्सिद्धसाधनात्।। जैनधर्मामृत, 2.74-76