________________ 27 अरहन्त परमेष्ठी होते हैं / 'रहस्य' के अभाव से भी अरिहन्त संज्ञा की उपलब्धि होती है। यहां रहस्य से अभिप्राय है--अन्तराय कर्म / अन्तराय कर्म के नाश से शेष तीन घातिया कर्मों का भी भ्रष्ट बीज के समान विनाश हो जाता है। इस प्रकार अन्तराय कर्म के नाश से अरिहन्त संज्ञा प्राप्त होती है।' द्रव्यसंग्रह के कर्ता आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती भी उसे ही अरिहन्त (= अरिहो) मानते हैं जिसने चार घातिया कर्मों अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय को नष्ट कर दिया है और इसके फलस्वरूप जिसके अन्नतज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य--ये अनन्त चतुष्टय उत्पन्न हो गए हैं, साथ ही जो निर्विकार रूप में स्थित है, वह शुद्धात्मा ही अरिहन्त है। 4) अरुह एवं अरुहन्त : अरहन्त के लिए अरुह अथवा अरुहन्त शब्दों का प्रयोग भी उपलब्ध होता है। भगवतीसूत्र में अरुहन्त शब्द की व्याख्या करते हुए बतलाया गया है कि 'कर्मरूपी बीज के नष्ट हो जाने से जो पुनः उत्पन्न नहीं होते, वे अरुहन्त हैं। जिस प्रकार बीज का आत्यन्तिक विनाश होने पर अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार कर्मरूपी बीज के दग्ध हो जाने पर भवांकुर उत्पन्न नहीं होता-- दग्धे बीजे यथात्यन्तं, प्रादुर्भवति नांकुर : / कर्मबीजे तथा दग्धे, न रोहति भवांकुर : / / ' इस प्रकार कर्मरूपी बीज के विनष्ट हो जाने पर अरहन्तों का संसार क्षीण हो जाता है, ये पुनः उत्पन्न नहीं होते हैं,अतः अरुहन्त कहलाते हैं / अरुह पद इसी का विकृत रूप है। (5) अरथान्तः अरहन्त के अर्थ में अरथान्त शब्द भी प्रयुक्त हुआ है / भगवतीसूत्र में इसका निर्वचन करते हुए कहा गया है कि 'रथ' अर्थात् सम्पूर्ण परिग्रह के उपलक्षणभूत जन्म-मरण एवं जरा आदि का जिन्होंने विनाश कर दिया है, ऐसे सत्त्व विशेष ही 'अरथान्त' कहलाते हैं / 1. अरिहननादरिहन्ता--रजोहननाद्वा अरिहन्ता--रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता-- धवला टीका, प्रथम पुस्तक, पृ. 43-45 2. णट्ठ चदुधाइकम्मो दसंणसुहणाणवीरियमइओ। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो।। द्रव्यसंग्रह, गा. 50 3. क्षीणकर्मबीजत्वादनुपजायमानाः / भग.वृ. प.३ 4. वही 5. अविद्यमान रथः-स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतोऽन्तश्च-विनाशो जराधु पलक्षणभूतो येषां ते / भग.वृ.प. 3