________________ अरहन्त परमेष्ठी मिथ्यात्व को प्राप्त नहीं किया है, उसे सासन या सासादन गुणस्थानवर्ती कहते हैं।' असन काअर्थ होता है-'नीचे की ओर गिरना' तथा आसादना का अर्थ होता है-विराधना, कारण कि यह जीव मिथ्यात्व की तरफ नीचे की ओर गमन करता है। यह कार्य सम्यक्त्व की विराधना से होता है। इस तरह सत्त्व द्वितीय गुणस्थान सासादन के कारण सम्यक्त्व का विनाश कर पतन की ओर अग्रसर होता है। 3. सम्यग्- मिथ्यादृष्टि गुणस्थानः मिले हुए गुड़ और दही की तरह जिसका पृथक्-पृथक् स्वभाव नहीं बतलाया जा सकता, ऐसे सम्यक्त्वऔर मिथ्यात्वरूप मिले हुए परिणाम वाला सम्यग् मियादृष्टि गुणस्थान होता है। मिश्ररूप परिणाम होने से इसे मिश्र गुणस्थान भी कहा जाता है। 4. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानः जो न तो इन्द्रियों के विषयों से विरक्त है और न त्रस तथा स्थावर जीवों की हिंसा से ही किन्तु जिनेन्द्र देव द्वारा प्रतिपादित तत्त्व पर जो श्रद्धा रखता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि जीव है। उसमें सत्य के प्रति आस्था तो हो जाती है परन्तु उसका आचरण करने की स्थिति नहीं बन पाती। 5. विरताविरत गुणस्थानः जो जीव जिनेन्द्र देव में अद्वितीय श्रद्धा रखता हुआ त्रस की हिंसा से विरत और उस ही समय में स्थावर की हिंसा से अविरत होता है, उस जीव को विरताविरत कहते हैं। विरत और अविरत दोनों ही धर्म भिन्न-भिन्न कारणों की अपेक्षा से हैं। अत एव उनका यहां सहावस्थान विरोध नहीं हैं। 6. प्रमत्तसंयत गुणस्थानः इस स्थान वाले साधक में महाव्रत आदि पालन की क्षमता भी आ जाती है, परन्तु उसमें दृढ़ता का अभाव होता है। व्यक्त और अव्यक्त दोनों प्रकार के -- 1. सम्मत्तरयणपव्वयसिहरादो मिच्छभूमिसमा मुहो। __णासियसम्मत्तो सो, सासणनामो मुणेयव्यो।। वही, गा. 20 2. दहिगुडमिव वामिस्सं, पुहभावं णेवकारितुं सक्कं / एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छोत्ति णादव्यो।। वही, गा. 22 3. णो इंदियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि। जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो।। वही, गा०, 26 4. जो तसवहाउ विरदो, अविरदओ तह य थावरवहादो। एक्कसमयम्हि जीवो, विरदाविरदो जिणेक्कमई / / वही गा. 31