________________ 20 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी मुक्त जीवों के हृद्य में जो आनन्द-सागर हिलोरे मारने लगता है, वही मेरे जीवन को आनन्दमय बनाने के लिए पर्याप्त है। रसहीन सूखे मोक्ष को लेकर क्या करना है। बोधिसत्त्व प्राणियों के प्रति करुणा का प्रदर्शन करने के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। . प्रत्येकबुद्ध सम्यक-सम्बुद्ध से पूर्व की सिद्धश्रेणी है। प्रत्येकबुद्ध को मौनबुद्ध भी कहा जा सकता है क्योंकि ऐसे बुद्ध अनाश्चर्यकभाव से प्रत्येक-सम्बोधि को प्राप्त करने के बाद भी धर्मोपदेश नहीं करते 2 वे स्वयं मुक्त होते हैं परन्तु अन्य प्राणियों की मुक्ति के लिए धर्मशासन की स्थापना नहीं करते, बल्कि वे एक- मात्र विमुक्ति सुख में रहकर एकान्त विहार करते हैं। प्रत्येकबुद्ध सम्यक्-सम्बुद्ध से प्रत्येक बात में छोटे होते हैं और सम्यक-सम्बुद्ध के समय में नहीं रहते / ऐसा प्रकृति का नियम है।' सम्यक-सम्बुद्ध महायानदर्शन की अपनी मौलिक कल्पना है। इनके अनुसार सम्यक्-सम्बुद्ध सर्वज्ञऔर परिमुक्तहोता है / वह स्वयं अपने पुरुषार्थ से बोधि प्राप्ति की प्रेरणा देता रहता है। सम्यक्-सम्बुद्ध का हृदय महाकरुणा से ओत-प्रोत रहता है। जो सम्यक्-सम्बुद्ध होते हैं, वे अपनी प्रशंसा सुनकर अपने आपको गुणों से युक्त ही प्रकट करते हैं। अर्हत् प्रत्येक-बुद्ध और सम्यक-सम्बुद्ध के बीच की कड़ी है। अर्हत् वह साधक है जिसके हृदय में अपनी दुःख-विमुक्ति के लिए स्वयं ज्ञान या बोधि का उदय नहीं होता है बल्कि बुद्ध आदि शास्ताओं के उपदेश से ज्ञान होता है। अर्हत् पद के साधक का लक्ष्य स्वयं की मुक्ति प्राप्त करना होता है, दूसरे प्राणियों के दुःख दूर करने के लिए वह कोई भी प्रयत्न नहीं करता और नही लोक कल्याण के लिए उपदेशही देता है। अर्हत् अवस्था को प्राप्त करने के बाद भी साधक संघ में ही रहता है और संघीय अनुशासन में रहते हुए अन्त में निर्वाण प्राप्त करता है। 1. मुच्मानेषु सत्त्वेषु ये ते प्रामोद्यसागराः / तैरेव ननु पर्याप्तं मोक्षेणारसिकेन किम् / / बोधिचर्यावतार, 8.108 2. एवं सो पच्चेक--सम्बुद्धो एको अनुत्तरं / पच्चेक-सम्बोधि अभिसम्बुद्धो ति-एको / / खुद्दक निकाय, भाग-४ (2), चुल्लनिद्देश, 3.10.1 3. दे० मेन्युअल ऑफ बुद्धिजम्, पृ. 62 4. वही 5. ये ते भवन्ति अरहना सम्मासबुद्धा ते सके वण्णे भञमाणे अत्तानं पातुकरोन्ति इति। सुत्तनिपात, पृ. 120 6. दे० तीर्थंकर बुद्ध और अवतार, पृ. 141-142