________________ अरहन्त परमेष्ठी 21 उपर्युक्त विवेचन को ध्यान में रखते हुए जहां सम्यग् सम्बुद्ध और बोधिसत्त्व का लक्ष्य अपनी दुःख विमुक्ति के साथ-साथ संसार के अन्य प्राणियों कीदुःख-विमुक्ति भी है वहांअर्हत् और प्रत्येकबुद्ध मात्र अपनी दुःख-विमुक्ति का ही प्रयास करते हैं। इस प्रकार अर्हत् और प्रत्येक बुद्ध दोनों ही समान प्रतीत होते हैं परन्तु इन दोनों में एक विशेष अन्तर यह है कि अर्हत् पथ का साधक बुद्ध आदि के उपदेश से प्रेरित होकर साधना करता हुआ बोधि प्राप्त करता है, जबकि प्रत्येकबुद्ध बिना किसी के उपदेश के स्वयं ही अपनी साधना करता है तथा अर्हत्त्व अवस्था प्राप्त करने के पश्चात् भी वह संघ में ही रहता है, जबकि प्रत्येकबुद्ध का संघीय व्यवस्था एवं संघीय जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। वह एकान्त साधना करता है और स्वयं बोधि प्राप्त कर एकाकी विहार करता है। अर्हत् शब्द का निर्वचन : बौद्धदर्शन के पालि एवं संस्कृत दोनों प्रकार के ग्रन्थों में अर्हत् शब्द की बहुधा निरुक्ति एवं व्याख्याएं की गई हैं। पालि में यह अरिहो अथवा अरहो मिलता है। धम्मपद में एक सम्पूर्ण अध्याय ही अर्हत् वग्गो नाम से मिलता है। यहां अर्हत् अथवा अरहन्त पद की विस्तृत व्याख्या करने हुए बतलाया गया है कि अरहन्त वह है जिसनेअपनीजीवन-यात्रासमाप्त कर ली है,जोशोक-रहित है, जो संसार से मुक्त है, जिसने सब प्रकार के परिग्रह को छोड़ दिया है और जो कष्ट से रहित है। यहां अर्हत् की कुछ भिन्न दृष्टि से भी व्याख्या की गई है। जैसे जो स्मृतिपूर्वक उद्योग करते हैं, गृहसुख में रमण नहीं करते, वे अर्हतृ कहलाते हैं। जैसे हंस क्षुद्र जलाशय को छोड़कर चले जाते हैं, वैसे ही वे भी घर को छोड़कर चले जाते हैं। अर्हत् के स्वरूप को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'जो वस्तुओं का संचय नहीं करते, जिनका भोजन नियत है, शून्यता स्वरूप एवं निमित्तरहित मोक्ष जिनको दिखाई पड़ता है,ऐसे उनअरहन्तों की गतिआकाश में पक्षियों की भांति अज्ञेय है'। 'सारथी द्वारा सुनिश्चित अश्वों की भांति 1. गतद्धिनो विसोकस्स विप्पमुत्तस्स सव्वधि। सव्वगन्थप्पहीनस्स परिलाहो न विज्जति।। धम्म. गा०६० 2. उपयुञ्जन्ति सतीमन्तो न निकेतं रमन्ति ते। "हंसा व पल्ललं हित्वा ओकमोकं जहन्ति ते / / वही, गा०६१ 3. येसं सन्निचयो नत्थि ये परिआत भोजना। सुञतो अनिमित्तों च विमोक्खो यस्स गोचरो, आकासे' व सकुन्तानं गति तेसं दुरन्नया / / वही, गा०६२