________________ 18 जैन दर्शन में पञ्च परमेष्ठी के धर्म का प्रवर्तक बतलाया गया है / यहां कहा गया है कि ऋषम देव श्रमणों, ऋषियों तथा ब्रह्मचारियो का धर्म प्रकट करने के लिए शुक्ल सत्त्वमय विग्रह से प्रकट हुए थे। (3) लौकिक वाङ्मय में अर्हत् : लौकिक संस्कृत साहित्य में भी अर्हत् शब्द का प्रचुर रूप से उल्लेख मिलता है। हनुमन्नाटक में कहा गया है कि जैन शासन के मानने वाले अपने ईश्वर को अर्हत् कहते हैं / अमरकोषकार ने अर्हत् के मानने वालों को आर्हक, स्याद्वादिक एवं आर्हत् कहा है। * मेदिनीकोष में अर्हत् को पूज्य, मान्य, बुद्ध, सुगत एवं बौद्ध भिक्षु इत्यादि के लिए प्रयुक्त हुआ बतलाया है। " आचार्य हेमचन्द्र अर्हत् को पदार्थ का यथार्थ वर्णन करने वाला परमेश्वर मानते हैं / कालिदास के अनुसार अर्हत् तीर्थ के प्रवर्तक हैं ! इस प्रकार लौकिक सस्कृत साहित्य में अर्हत् शब्द विभिन्न अर्थो में आया है परन्तु मुख्यतः यह शब्द पूज्य एवं योग्य अर्थ में ही बहुलतया प्रयुक्त हुआ मिलता है ! (क) पूज्य अर्थ में अर्हत् : संस्कृत के प्रसिद्ध महाकाव्य रघुवंश में राजा दिलीप के लिए पूज्य अर्थ मे अर्हत् पद का प्रयोग किया गया है ! इसी प्रकार राजा रघु ने गरुदक्षिणाभिलाषी मुनि कौत्स के लिए पज्य अर्थ में ही अर्हत पद का प्रयोग किया है। राजा रघु मुनि कौत्स को कहते हैं-हे अर्हन्, आप दो तीन दिन ठहरने का कष्ट करें, तब तक मैं आपके लिए गुरु दक्षिणा का प्रबन्ध करता हुँ / अभिज्ञानशाकुन्तल में राजा दुष्यन्त को भी पूज्य एवं सम्मानित व्यक्ति के रूप में प्रकट करते हुए उसमें अर्हत्त्व की पराकाष्ठा बतलाई गई है। (ख) योग्य अथवा समर्थ अर्थ में अर्हत् : __ संस्कृत वाड्.मय में विशेषकर मनुस्मृति, रामायण एवं गीता में अर्हत 1. धर्मान् दर्शयितुं कामो वातरशनानां श्रमणानामृषीणामूर्ध्वमन्थिनां शुक्लया तनुवावतार श्रीमद्भागवत, 5.3.20 2. अर्हन्नित्यथजैन शासनरतः / हनुमन्नाटक, 1.3 3. स्यात् स्याद्वादिक आर्हकः आर्हत् इत्यादि / अमरकोष, 2.7.18 (मणिप्रभा टीका) 4. अर्हस्तु क्षपणे बुद्धे पुंसि मान्येऽन्यलिङ्गकः / अर्हन्तश्चापि सुगते क्षपणेऽपि च दृश्यते / / मेदिनी, पृ०७६ 5. यथास्थितार्थवादी च देवोर्हन् परमेश्वरः / (हेमचन्द्र, योगशास्त्र, 2.4) 6. यदध्यासितमर्हभिस्तदिध तीर्थ प्रचक्षते / कुमारसम्भव, 6.56. 7 अर्हणामर्हते चक्रुर्मुनयो नयचक्षुषे / रघुवंश, 155 8. द्वित्रीण्यहन्यर्हसि सोदुमर्हन् यावद्यते साधयितुं त्वदर्थम् / / वही, 5.25 6. त्वमर्हता प्राग्रसर : स्मृतोऽसि नः / अभिज्ञान शाकुन्तल, 5.16