________________ द्वितीय परिच्छेद अरहन्त परमेष्ठी क- भारतीय वाङ्मय एवं अरहन्त : भारतीय वाङ्मय में अर्हत् शब्द प्राचीनकाल से ही चला आ रहा है / इसके लिए अरहन्त और अरिहन्त आदि शब्दों का बहुलतया प्रयोग मिलता है। जैनों के तो परमाराध्य देव अरहन्त ही हैं / इसी कारण इनके नमस्कार-महामन्त्र में अरहन्तों को सर्वप्रथम नमस्कार किया गया है -- 'णमो अरहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, -- / / प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में भी जैनों की भांति अर्हत् को अधिक महत्त्व दिया गया है। यहां अर्हत्त्व की प्राप्ति ही भिक्षु का अन्तिम लक्ष्य है / अर्हत्त्व का अर्थ 'निर्वाण' भी लिया गया है किन्तु महायान बौद्धदर्शन अर्हत् और श्रावक में भिन्नता करता / इस तरह महायान दर्शन में अर्हत् को उतना महत्त्व नहीं दिया गया है जितना कि थेरवाद बौद्धधर्म में दृष्टिगत होता है। - महायान दर्शन में सम्यक् सम्बुद्ध को सर्वश्रेष्ठ शास्ता माना गया है। इनकी दृष्टि में यही सर्वज्ञ भी हैं / जैन भीअर्हत् व अरहन्त को ऐसा ही सर्वोच्च महत्त्व देते हैं / इनके अनुसार अरहन्त मोक्षमार्ग के प्रणेता हैं, कर्मरूपी पर्वतों को भेदन करने वाले हैं और सम्पूर्ण विश्व के तत्त्वों के ज्ञाता हैं। जैन वाङ्मय में इन्हें तीर्थंकर, जगन्नाथं, जिन एवं भगवान् आदि नामों से भी जाना जाता है / बौद्ध निकाय महापरिनिर्वाण सूत्र में एक प्रसंग आता है जहां भगवान् बुद्ध जैनों की अरहन्तों में भक्ति-भावना की प्रशंसा करते हैं / यहां बुद्ध अपने 1. यो खो आवुसो, रागक्खयो, दोसक्खयो मोहक्खयो -- इदं वुच्चति अरहत्तं / सं० नि० 3. 252, पृ० 224; यो खो, आवुसो, रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो, इदं वुच्चति निब्बानं / वही, 3. 251, पृ० 223 2. मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् / ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये / / त० वृ०, मंगलाचरण श्लोक तथा दे० आप्त परीक्षा, कारिका 3 3. तीर्थङ्करो जगन्नाथो जिनोऽर्हन् भगवान् प्रभुः / / (हर्षकीर्ति) शारदीय नाममाला, 6, उद्धृत अनेकान्त, वर्ष 28, कि० 1, पृ० 18 /