________________ विषय-प्रवेश 13 चाहिए ।इसके समाधान से बतलाया गया है कि 'आचार्य तोअरहन्त-परिषद् के पार्षद हैं और कोई भी व्यक्ति परिषद् को प्रणाम कर पुनः राजा को प्रणाम नहीं करता। दूसरे,अरहन्त और सिद्ध तो तुल्यबल भी हैं, उनमें पौर्वापर्य का विचार किया जा सकता है परन्तु परमनायक अरहन्त और उनकी परिषद्कल्प आचार्य में पौर्वापर्य का विचार नहीं किया जा सकता। अतः नमस्कार-महामन्त्र में जो परमेष्ठी क्रम है वह समुचित ही है। उसमें किसी भी प्रकार के क्रम का अतिक्रमण नहीं किया गया है। इस तरह अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पांच परमेष्ठी हमारे इष्ट है / ये सभी स्वात्मा में स्थित हैं,स्व के ही परिणतिरूप हैं, केवलज्ञान आदि गुणों से युक्त होने तथा समस्त सत्त्वों को सम्बोधित करने में समर्थहोने से यह आत्मा ही अरहन्त है / समस्त कर्मो के क्षयरूप मोक्ष को प्राप्त करने से निश्चय से यही आत्मा सिद्ध है / दीक्षा और शिक्षा को देने वाले होने से, पञ्चाचार के स्वयं आचरण करने तथा दूसरों को आचरण कराने में विचक्षण होने से आत्मा ही आचार्य है / श्रुतज्ञान के उपदेशक, स्व-पर मत के ज्ञाता तथा भव्य जीवों के सम्बोधक होने से यही आत्मा उपाध्याय है और सम्यदर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय के साधक, सम्पूर्ण प्रपञ्चों से रहित, दीक्षा, शिक्षा, यात्रा, प्रतिष्ठा आदि अनेक धर्मकार्यों की निश्चिन्तता से तथा आत्मतत्त्व की साधकता से यह आत्मा.ही साधु है / अत एव पञ्चपरमेष्ठी रूप यह आत्मा ही स्पष्ट रूपसे अपनीशरण है। इसलिए पञ्चनमस्कार-महामन्त्र का जाप कर प्रत्येक प्राणी को स्व में ही रमण करना चाहिए। आत्मदर्शन अथवा आत्मसाक्षात्कार ही ब्रह्यत्व की और अलौकिक सुख की उपलब्धि है नमस्कार-महामन्त्र साम्प्रदायिक नहीं: नमस्कार-महामन्त्र में जिन पांच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है उनका सम्बन्ध किसी सम्प्रदाय विशेष से नहीं है। उस-उस पद की अर्हता को प्राप्त कर लेने वाली भव्य आत्माएँ चाहे किसी भी सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखती हों उन सभी को नमस्कार-महामन्त्रमेंनमन के योग्य मानकर उस उस रूप में नमस्कार किया गया है। अतः नमस्कार-महामन्त्र साम्प्रदायिक नही सार्वभौमिक है। इन्हीं परमेष्ठियों का विस्तृत सम्यक् निरूपण प्रस्तुत करना प्रकृत प्रबन्ध का अभिधेय है। 1. तथा अर्हत्परिषद्पा एवाचार्यादयोऽतस्तान् नमस्कृत्यार्हन्नम स्करणमयुक्तम् ‘ण य कोइवि परिसाए पणमित्ता पणवए रन्नोत्ति / ' भग० वृ० पृ०५, तथा मिलाइये, आ० नि०, गा० 1022