________________ विषय-प्रवेश सुख विषय जनित सुख से भिन्न नहीं है | विषय तृष्णारूप अग्नि की ज्वाला हैं जो सत्त्व को निरन्तर जला रहे हैं, इनकी शान्ति अभीष्ट इन्द्रिय विषयों की आहुति से असम्भव है / इससे तो उनकी उत्तरोत्तर वृद्धि ही होती है कारण कि जैसे-जैसेयेविषयभोग उपलब्धहोतेरहते हैं वैसे-वैसेही प्राक्कृत-तद्विषयक इच्छा भी घी की आहुतियों से अग्नि के समान उत्तरोतर बढ़ती जाती हैं। इच्छित विषय किञ्चित् काल केवल शरीर के सन्ताप को तो दूर कर सकते हैं किन्तु वे उन तृष्णा ज्वालाओं को कभी शान्त नहीं कर सकते हैं। इसी कारण आप्त परमेष्ठी जिनेन्द्र उस विषयजनित सुख से विमुक्त होते हुए स्वाधीन सुखोपलब्धि के लिए चक्रवर्ती की विभूति को भी तुच्छ तृण के समान छोड़ देते हैं -- तृष्णार्चिषः परिदहन्ति न शान्तिरासा मिष्टेन्द्रियार्थविभवैः परिवृद्धिरेव। स्थित्यैव कायपरितापहरं निमित्त - मित्यात्मवान् विषयसौख्यपराङ्मुखोऽभूत् / / मानव-शरीर समस्त परम्परा का मूल है, कारण कि यही प्रारम्भ में उत्पन्न होता है, उसमें दुष्ट इन्द्रियां होती हैं जो विषयों की अपेक्षा करती हैं और ये विषय ही सत्त्व को मान-हानि, प्रयास, पाप एवं दुर्गति के प्रदाता होते हैं / जैसे कि कहा भी गया है -- बन्धाद्देहोऽत्र करणान्येतेश्च विषयग्रहः / बन्धश्च पुनरेवातस्तदेनं संहराम्यहम् I अभिप्राय यह है कि संसारी जीव अशुद्ध परिणामों से संयुक्त होकर नवीन कर्मबन्ध करता है जिससे उसका नरक आदि गतियों में गमन होता है। गति-प्राप्त सत्त्व को ही शरीर होता है, शरीर से सम्बद्ध इन्द्रियां होती हैं, इनके हीद्वारा विषय का ग्रहण होता है, तब फिर उसमें राग एवं द्वेष भाव उत्पन्न होते हैं / इस प्रकार चक्रवत् संसारूप समुद्र में परिभ्रमण करने वाले इस संसारी जीव की यही अवस्था है / यह संसार परिभ्रमण अभव्य जीव काअनादि-अनिधन तथा भव्य जीव का अनादि-सान्त होता है | आचार्य कुन्दकुन्द ने भाव प्राभृत में बाहुवली का उदाहरण देते हुए बतलाया है कि शरीर को आदि लेकर समस्त परिग्रह का त्याग करके भी मानकषाय से कलुषित बाहुबली को कितने ही काल तक आतापन योग से स्थित रहना पड़ा था (अर्थात् कायोत्सर्ग में स्थित रहते हुए भी उन्हें एक वर्ष तक मुक्ति प्राप्त नहीं हुई थी) 1. स्वयम्भूस्तोत्र, 17.2 2. सागारधर्मामृत, 6.31