________________ विषय-प्रवेश आत्मा के परमात्मत्व की प्राप्ति में अन्य कोई सहायक नहीं होता / जिस प्रकार वृक्ष स्वयं घर्षित होकर अग्निस्वरूप परिणत हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं ही अपनी उपासना कर परमात्मा बन जाता है-- उपास्यात्मानमेवात्मा जायते परमोऽथवा / मथित्वात्मानमात्मैव जायतेऽग्निर्यथा तरुः / / वस्तुतः जन्म रहित (= अनादि), अविनश्वर (= अनिधन), अमूर्त (= रूप, रस आदि से रहित), शुभाशुभ भावों का कर्ता अर्थात् आत्मपरिणमन का कर्ता, आत्मकृत कर्मों के फल का भोक्ता, सुखस्वरूप, ज्ञानमय और प्राप्त शरीर के बराबर आत्मा, कर्ममल से रहित होकर स्वभावतः ऊपर चला जाता है, ऊर्ध्वगमन करता है और सर्वशक्तिमान् रूप में वहीं स्थिर हो जाता है-- अजातोऽनश्वरोऽमूर्तः कर्ता भोक्ता, सुखी बुधः / देहमात्रो मलैर्मुक्तो गत्वोर्ध्वमचलः प्रभुः / / जैसे-जैसे ज्ञान में उत्तम, विशद आत्मत्व आता जाता है वैसे ही वैसे सहज प्राप्त विषय-भोग भी अच्छे नहीं लगते / जैसे-जैसे पुण्य से मिले हुए सुलभ इन्द्रिय विषय आत्मा को रुचिकर नहीं होते वैसे वैसे ही अपनी ज्ञानधारा में श्रेष्ठ विशद आत्मा का स्वरूप प्रतिभाषित होने लगता है |आत्मस्वादी सत्त्व की रुचि आत्मा की ओर ही लगी रहती है और वह अपने को भूल जाता है / अपना आत्मा ही अपना है, वही नाथ = स्वामी है, इसके सिवाय कुछ भी नहीं है। इस प्रकार के आत्मचिन्तन में अपूर्व परमानन्द उत्पन्न होता है और वह परमानन्दस्वरूप आत्मब्रह्म ही परमेष्ठी है / महामन्त्र नमस्कार अनादि नहीं : नमस्कार-महामन्त्र का जो अतिप्राचीन रूप उपलब्ध होता है उसमें 'नमो अरहंतानं (1) नमो सवसिद्धानं (1) ये दो ही पद मिलते हैं। अतः यहां यह विचारणीय है कि क्या संक्षेप में परमेष्ठी की गणना दो पदों में ही की जातीथी अथवा पांच पदों में। जैन नमस्कार-महामन्त्र को अनादिनिधन मानते हैं परन्तु यह श्रद्धा काअतिरेक ही प्रतीत होता है। तात्त्विक दृष्टि से जिसे भी चाहें अनादि बतलाया 1. आराधनासार, पृ० (142) पर उद्धृत 2. आत्मानुशासन, श्लो० 266, 3. ऐसे ही विचार बौद्ध दर्शन में भी मिलते है दे. धम्मपद, गा० 160 4. दे०- खारवेल प्रशस्ति, हाथी गुंफा-अभिलेख, प्रथम पंक्ति 5. अनादिमूलमन्त्रोऽयं सर्वविघ्नविनाशनः / मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः / / मंगलमन्त्रणमोकारः एक अनुचिन्तन, पृ० 63 पर उद्दत